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युवाचार्यश्री ने कहा कि किसी विचार को व्यावहारिक बनाने के लिए हमें मानव की मूल वृत्तियों को समझना होगा । जब तक इन वृत्तियों का परिष्कार नहीं होगा, तब तक समाज - - परिवर्तन संभव नहीं । जहां तक समाज - परिवर्तन कौन करेगा का प्रश्न है, युवाचार्यश्री ने बतलाया कि यह कार्य प्राथमिक शिक्षा के माध्यम से ही सम्पन्न कराया जा सकता है । भविष्य के छात्र जब नव शिक्षा के द्वारा नव संस्कार ग्रहण करेंगे तभी समाज में स्थाई परिवर्तन होगा ।
नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना को एक दूसरे से भिन्न बतलाते हुए युवाचार्यश्री ने कहा कि नैतिक चेतना सामाजिक होती है जबकि आध्यात्मिक चेतना व्यक्तिगत होती है। आध्यात्मिक चेतना कब जगेगी यह निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता परन्तु अध्यात्म और धर्म दोनों के लिए नैतिक चेतना का जागरण आवश्यक है । दाएं मस्तिष्क की चेतना का जागरण धार्मिक चेतना का जागरण है जिसमें सांवेगिक परिवर्तन होता है । परन्तु इससे सामाजिक परिवर्तन नहीं होता । सामाजिक परिवर्तन के लिए इसके सम्बन्धों को बदलना होगा । परन्तु नैतिक परिवर्तन के लिए साहित्य और विज्ञान से अधिक प्रयोग की आवश्यकता है और प्रयोग का अर्थ है प्रेक्षाध्यान के द्वारा हृदय परिवर्तन करना ।
डॉ० रज्जनकुमार ने अध्यात्म और विज्ञान को अलग-अलग मानते हुए मानव विकास के लिए दोनों के सहयोग को आवश्यक माना ।
चतुर्थ पत्र वाचन सत्र प्रो० एस० आर० भट्ट, दिल्ली विश्वविद्यालय की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ जिसमें डॉ० पुष्पराजन मदुरई, डॉ० रामजीसिंह, कुलपति, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं तथा डॉ० कौशल्या वल्ली, जम्मू ने अपने विचार प्रस्तुत किये । परिचर्चा में ८-१० व्यक्तियों ने भाग लिया । डॉ॰ पुष्पराजन ने हिन्दू और ईसाई धर्मों की कुछ घटनाओं के सहारे यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि आध्यात्मिक कार्य नैतिक कार्य से परे है । मानव जीवन में पाशविकता, विवेक और आत्मा तीनों कार्य होते हैं । आत्मा उसके जीवन की सर्वोच्च नियामक शक्ति है। नैतिकता का पालन इस सर्वोच्च नियामक शक्ति को प्राप्त करने में सहायक होता है । उनकी दृष्टि में आध्यात्मिकता अमरत्व की अनुभूति है और दूसरे अर्थ में यह मानव व्यक्तित्व की वह संरचना है जिसके अन्दर पाशविकता, विवेक, नैतिकता सभी समाहित हो जाते हैं ।
कुलपति प्रो० रामजी सिंह ने अध्यात्म और विज्ञान के संबंध में सामान्य लीक से हट कर एक क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने बतलाया कि अध्यात्म और विज्ञान - दो प्रकार के ज्ञान हैं। उनमें से कोई भी एक दूसरे से उत्कृष्ट और निकृष्ठ नहीं है । दोनों एक दूसरे से स्वतंत्र हैं ।
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तुलसी प्रज्ञा
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