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पादन करते हैं । पूर्ण में से पूर्ण निकालो तो बाकी भी पूर्ण ही बचता है । यही विश्व एकत्व का दर्शन है यही ब्रह्म विद्या है। वैज्ञानिक सत्य और नैतिक सत्य परस्पर विरोधी नहीं हैं । ये एक दूसरे के पूरक हैं । वैज्ञानिक भी सत्य की खोज में हैं और दार्शनिक भी सत्य की खोज में । सत्य की खोज के लिए न तो केवल विज्ञान पर्याप्त है न ही केवल दर्शन । दर्शन और विज्ञान का योग ही पूर्ण सत्य की प्राप्ति की ओर ले जायेगा, जैसा कि आईन्सटाईन कहा करते थे, विज्ञान धर्म के बिना अंधा है और धर्म विज्ञान के बिना लंगड़ा है । ईषोपनिषद का मंत्र उनको बहुत प्रिय था :
यह सारा चराचर जगत् ईश का वास है - जो वह त्यागे उसे भोगो किसी दूसरे के धन पर गीध की दृष्टि मत रखो। यही सार है अहिंसा का विश्व शान्ति के दर्शन का । फिर,
ईशावास्यमिदं सर्वं यतकिञ्च जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुन्जीथाः मागृधः कस्यस्विद्वनम् ॥
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सौ वर्ष तक काम करते हुए जीने की इच्छा करो परन्तु कर्मफल में लिप्त मत हो !
गीता के अठारहवें अध्याय का निम्न श्लोक भी उन्हें बहुत प्रिय था : ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन्सर्व भूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥
अर्थात् ईश्वर सबके हृदयों में विराजमान है । माया की शक्ति सबको यन्त्रवत् चलायमान करती है ।
सत्य है । मैं
उनका कहना था शरीर यन्त्रवत् है, यह एक वैज्ञानिक इसका नियन्त्रण करता हूं, यह भी सत्य है । तो फिर यह "मैं" क्या है ? नचिकेता ने भी यह ही पूछा था, "मैं कौन हूं" ? इस तथ्य को समझने के लिए आवश्यक है कि हम मस्तिष्क और मन में जो भेद है उसे समझें | मस्तिष्क विज्ञान का विषय है, मन विज्ञानेतर है। विज्ञान ने अन्धविश्वासों पर प्रहार किया है, लेकिन अभी मन की खोज अनुसंधानाधीन है। लोभ, मोह, वर, माया के पाश से केवल ज्ञान और संयम के द्वारा ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है । सहयोग ही जीवन का नियम है और संघर्ष अपवाद । इसी प्रकार गीता के नवें अध्याय का निम्न श्लोक सर्वदा उनका मार्गदर्शन करता रहा :
येsयन्य देवता भक्ता यजन्ते तेsपि मामेव कौन्तेय यजन्त्य
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कुर्वन्नेवेह कर्माणि, जिजीविषेच्छतं समाः । एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥
श्रद्याऽन्विता । विधिपूर्वकम् ॥
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तुलसी प्रज्ञा
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