Book Title: Tulsi Prajna 1993 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 46
________________ अध्यात्म और विज्ञान : परिसंवाद-प्रतिवेदन –दशरथ सिंह अध्यात्म और विज्ञान विषय पर त्रिदिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद का उद्घाटन युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के नमोकार मंत्र से हुआ। विद्वानों को उद्बोधित करते हुए युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने अध्यात्म और विज्ञान दोनों को अलग-अलग मानते हुए, दोनों के समन्वय को परिसंवाद का लक्ष्य बतलाया। विज्ञान अपने आपको बदलना नहीं जानता, केवल पदार्थ को बदलना जानता है । अध्यात्म अपने आपको बदलने की बात करता है । जब तक मोह और ज्ञान अलग-अलग रहते हैं तब तक अध्यात्म और विज्ञान भी एक दूसरे से अलग रहते हैं । परन्तु जब आग्रह और मोह का क्षय हो जाता है तब अध्यात्म और विज्ञान दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। शुद्ध ज्ञान की अवस्था में दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाता । शुद्ध ज्ञान की अवस्था में ही हमारे आचरण का विकास होता है। अतः युवाचार्यश्री ने कहा कि आज के युग की आवश्यकता ज्ञान और आचरण का समन्वय कर आध्यात्मिकवैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण करना है। वैज्ञानिकों को आह्वान करते हुए युवाचार्यश्री ने कहा कि आज वैज्ञानिकों के लिए केवल पदार्थों को जानना और उन्हें रूपान्तरित करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि चिन्त्य और अचित्यसभी पदार्थों को जानने तथा रूपान्तरित करने का प्रयास करना चाहिए। उन्होंने इस परिसंवाद में एक ऐसे दिशा-निर्माण की आशा व्यक्त की जिससे प्रत्येक अनुसंधान के साथ मैत्री जुड़ सके। महाश्रमणी साध्वी-प्रमुखा कनकप्रभा ने समारोह को सम्बोधित करते हुए अध्यात्म और विज्ञान दोनों की समानता के तत्त्व पर प्रकाश डालते हुए उनके समन्वय की आवश्यकता पर बल दिया। उनकी दृष्टि में अध्यात्म और विज्ञान दोनों अपूर्णता से पूर्णता की ओर ले जाते हैं। दोनों नियमतः आध्यामिक हैं। दोनों अखंड सत्य के सागर में पहुंच कर एक हो जाते हैं । अध्यात्म और विज्ञान दोनों मनुष्य को गहराई की ओर ले जाते हैं। यह मानव को ऊंचा उठाने में सहायता प्रदान करता है। परन्तु अकेले अध्यात्म और विज्ञान-दोनों के छोर अपूर्ण हैं । जब तक दोनों अपूर्ण रहेंगे तब तक मानवजाति के सामने समस्या बनी रहेगी। दोनों के समन्वय से ही हमारा सर्वांगीण तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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