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उठने की भूमिका का स्वागत करते हैं जिसे "अक्षोभ मन" कहें या "अमन " कहें । सच्चे अर्थ में मन से ऊपर उठना ही अध्यात्म और विज्ञान है ।
निष्कर्ष के रूप में श्री मेहता ने बतलाया कि विज्ञान को अध्यात्मोन्मुख होना चाहिए और इसके लिए प्रचलित वैज्ञानिक पद्धति के बदले एक नई पद्धति का विकास करना चाहिए ।
श्री सम्पूर्णसिंह ने अपने भाषण में यह बतलाया कि वर्तमान मानव के सामने मूल समस्या मानसिक समस्या है। किसी वस्तु को समझने या उसे देखने का ढंग गलत है । हमारा सारा का सारा चिंतन और प्रत्यक्ष किसी न किसी प्रकार से गलत अनुभूतियों से सम्बद्ध है । यही गलत संबद्धन हमें यथार्थ का बोध नहीं होने देता है । यथार्थ के बोध के लिए मन को संवद्धनमुक्त करना होगा और अन्ततः अनुभूति का शुद्ध अर्थ में सहारा लेना होगा । डॉ० सिंह ने बतलाया कि जितनी अवधारणाएं और सिद्धांत हैं - वे सभी हमारी मानसिक संरचनाएं हैं । अतः अनुभूति हमें यथार्थ का साक्षात् दर्शन कराती है । बाद में हम तर्क और भाषा के सहारे उसे बोधगम्य बनाने का प्रयास करते हैं । अतः किसी चीज को देखना, उसे जानना और अनुभूति के अनुरूप आचरण करना - ये अलग-अलग चीजें हैं। डॉ सिंह के अनुसार विज्ञान अध्यात्म का आत्म-विरोधी है । परन्तु अध्यात्म विज्ञान का विरोधी नहीं, क्योंकि प्रथम की दृष्टि खंडित - दृष्टि है परन्तु दूसरा समग्रता का दर्शन है । अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ० दयानन्द भार्गव ने सारे विरोधी विचारों का समन्वय करने का प्रयास किया। उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार किया कि कुछ चीजें बुद्धि के परे हैं । यह ठीक है कि भाषा, तर्क और मन की अपनी सीमाएं हैं, परन्तु उनका प्रयोग किए बिना कोई रह नहीं सकता, क्योंकि हमारी संप्रेषणीयता का साधन यही है । असल में विज्ञान विश्लेषणात्मक बुद्धिप्रधान है जो भेदमूलक ज्ञान से सम्बन्धित है और अध्यात्म संश्लेषणात्मक बुद्धि प्रधान है जो समानता और रचनात्मकता की प्रधानता को स्वीकार करता है । अत: अनुभूति से सम्बन्धित विवाद का निराकरण करते हुए उन्होंने कहा कि अंत: अनुभूति के सम्बन्ध में जब भी चर्चा हो तो उस शब्द का प्रयोग शुद्धता में होना चाहिए । तर्क से उसे समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए क्योंकि सामान्य तर्क और अन्तः अनुभूति में कभी-कभी विरोध होता ही है । सामान्यतः सुख सबको प्रिय है । परन्तु कहीं-कहीं दुःख में सुख की अनुभूति होती है । उन्होंने डॉ० रामजी सिंह के प्रश्नों का उत्तर देते हुए बतलाया कि अन्त: अनुभूतियां अलग-अलग होते हुए भी वे आत्म-विरोधिनी नहीं हैं । निष्कर्ष रूप में उन्होंने बताया कि अध्यात्म और विज्ञान दोनों को मानवतावाद की दिशा में आगे बढ़ना है । सत्य को जानना और उसे मानव हित में लगाना दोनों आवश्यक हैं। अध्यात्म में श्रद्धा टिकाने के लिए विज्ञान
खंड १९, अंक १
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