Book Title: Tulsi Prajna 1993 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 48
________________ ही समन्वय है। परन्तु हम अज्ञानवश इस समन्वय को देख नहीं पाते इसलिए दोनों के समन्वय की आवश्यकता पर बल देते हैं। स्वामी स्वतंत्र ने भौतिक विज्ञान और अध्यात्म दोनों के समन्वय का केन्द्र बिन्दु मानव को बताया क्योंकि दोनों की उत्पत्ति का कारण मानव की चेतना ही है और दोनों का प्रयोजन मानव का हित है। विज्ञान ने अपनी विशिष्टता के द्वारा और अध्यात्म ने अपनी सृजनात्मकता के द्वारा मानव को ऊपर उठाने में अपनीअपनी अद्भुत भूमिका निभाई है। परन्तु कालचक्र के परिणामस्वरूप अध्यात्म और भौतिक विज्ञान अपनी-अपनी भूमिका से पदच्युत हो गए। अध्यात्म से आत्मा और विज्ञान समाप्त हो गया और रूढ़ता, ढांचा तथा जकड़न की प्रधानता हो गई । वह मानव में नव चेतना को जागृत करने में असफल हो गया और वह मानव को अनुप्राणित करने योग्य नहीं रह गया । इसी के परिणामस्वरूप भौतिक विज्ञान या बहिर्मुखता को प्रधानता मिली। परन्तु विज्ञान के पास तो कोई जीवन-दृष्टि है नहीं। परिणामस्वरूप भौतिक विज्ञान के विकास होने पर भी मानव का विकास नहीं हुआ। इस प्रकार अध्यात्म की विकृति, जकड़न और ऐकान्तिक अंतर्मुखता तथा विज्ञान की नीति-निरपेक्षता दोनों सम्मिलित रूप से आधुनिक सभ्यता के सामने संकट उत्पन्न करने के लिए जिम्मेदार हैं। ___ अतः श्री ॐ स्वतन्त्र ने निष्कर्ष के रूप में यह बतलाया कि मानव अध्यात्म और विज्ञान दोनों का संयोग भी है और उससे परे भी है। यदि हम अपनी बुद्धि और विवेक से दोनों का समन्वय कर सकेंगे तो उससे एक नई चेतना का जन्म होगा जिससे जीवन विज्ञान अपनी समग्रता में विकसित होगा । जीवन में सत्य के विकास के लिए दोनों का समन्वय अनिवार्य है । ॐ पूर्ण स्वतन्त्र ने इस बात पर बल दिया कि पहले भूत और आत्मा के क्षेत्र में गहरा अनुसंधान होना चाहिए और उसे जीवन के हर क्षेत्र में लागू करने की प्रतिबद्धता होनी चाहिए, जैसी प्रतिबद्धता गांधी को थी। अपने अध्यक्षीय भाषण में मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी ने स्वामी स्वतन्त्र के विचारों से सहमति व्यक्त की तथा उसे समाज में उतारने के लिए नई शिक्षा-जीवन विज्ञान की शिक्षा की प्रविधि पर बल दिया। श्रीकृष्णराज मेहता ने अपने निबन्ध में यह बतलाया कि वर्तमान सभ्यता के संकट का कारण असन्तुलित विकास है। भौतिक विज्ञान का विकास हुआ परन्तु हमारी आंतरिक वृत्ति का विकास उस अनुपात में नहीं हुआ। समग्र विकास तो आत्मज्ञान और विज्ञान के समन्वय से ही हो सकता है । सच तो यह है कि विज्ञान और अध्यात्म दोनों एक ही सत् के दो पहल हैं । अतः दोनों के साथ-साथ कार्य करने मे ही मानव का विकास हो सकता है। श्री मेहता ने यह बतलाया कि विज्ञान और अध्यात्म दोनों मन से ऊपर तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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