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अपेक्षित मात्रा में पानी न ग्रहण करने से भोजन का परिपाक सम्यक् रूप से नहीं होता है। यदि व्यक्ति जल की सम्यक मात्रा का ग्रहण करने का प्रयास करता है, तो उसे बार-बार मूत्र-त्याग के लिए उठना होता है, फलस्वरूप निद्रा भंग होती है । नींद पूरी न होने के कारण वह सुबह देरी से उठता है और इस प्रकार न केवल उसकी प्रातःकालीन दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है, अपितु वह अपने शरीर को भी अनेक विकृतियों का घर बना लेता है।
जैनों में सामान्य रूप से विश्वास था कि वे अन्नकण जो अंकुरित हो रहे हैं अथवा किसी वृक्ष आदि का वह हिस्सा जहां अंकुरण हो रहा है, वे अनन्तकाय है और अनन्तकाय का भक्षण अधिक पापकारी है। आज तक यह एक साधारण सिद्धांत लगता था, किन्तु आज वैज्ञानिक गवेषणा के आधार पर यह सिद्ध हो रहा है कि जहां भी जीव के विकास की सम्भावनाएं हैं, उसके भक्षण या हिंसा से अनन्त जीवों की हिंसा होती है। क्योंकि जीवन के विकास की वह प्रक्रिया कितने जीवों को जन्म देगी यह बता पाना भी सम्भव नहीं है, यदि यह उसकी हिंसा करते हैं तो जीवन की जो नवीन सतत् धारा चलने वाली थी, उसे ही हम बीच में अवरुद्ध कर देते हैं। इस प्रकार अनन्त जीवन के विनाश के कर्ता सिद्ध होते हैं ।
___ इसी प्रकार मानव का स्वाभाविक आहार शाकाहार है, मांसाहार एवं अण्डे आदि के सेवन से कौन से रोगों की उत्पत्ति होती है आदि तथ्यों की प्रामाणिक जानकारी आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के द्वारा ही सम्भव हुई है । आज वैज्ञानिकों और चिकित्साशास्त्रियों ने अपनी खोजों के माध्यम से मांसाहार के दोषों की जो विस्तृत विवेचना की है---वह जैन आचारशास्त्र कितना वैज्ञानिक है, इसकी पुष्टि करता है।
इसी प्रकार पर्यावरण की शुद्धि के लिए जैन परम्परा में वनस्पति, जल आदि के अनावश्यक दोहन पर जो प्रतिबन्ध लगाया गया है, वह आज कितना सार्थक है यह बात हम बिना वैज्ञानिक खोजों के नहीं समझ सकते । पर्यावरण के महत्त्व के लिए और उसे दूषित होने से बचाने के लिए जैन आचारशास्त्र की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है इसकी पुष्टि आज वैज्ञानिक खोजों के माध्यम से ही सम्भव हो सकी है। वैज्ञानिक ज्ञान के परिणामस्वरूप हम धार्मिक आचार सम्बन्धी अनेक मान्यताओं का सम्यक् मूल्यांकन कर सकते हैं और इस प्रकार विज्ञान की खोज, धर्म के लिए उपयोगी ही सिद्ध हो सकती है।
न तो विज्ञान ही चरम सत्य है और न आगम के नाम पर जो कुछ है वही चरम सत्य है । न तो आगमों को नकारने से कुछ होगा और न
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तुलसी प्रज्ञा
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