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हो किन्तु ईथर न हो तो कोई गति संभव नहीं होगी। किसी भी प्रकार की गति के लिए कोई न कोई माध्यम आवश्यक है । जैसे मछली को तैरने के लिए जल । इसी गति के माध्यम को विज्ञान ईथर और जैन दर्शन धर्म द्रव्य कहता है ।
साथ ही हम यह भी देखते हैं कि विश्व में केवल गति ही नहीं है, अपितु स्थिति भी है । जिस प्रकार गति का नियामक तत्त्व आवश्यक है, उसी प्रकार स्थिति का भी नियामक तत्त्व आवश्यक है । विज्ञान इसे गुरुत्वाकर्षण के नाम से जानता है, जैन दर्शन उसे ही अधर्म द्रव्य कहता है । व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में अधर्म द्रव्य को विश्व की स्थिति के लिए आवश्यक माना गया है यदि अधर्म द्रव्य न हो और केवल अनन्त आकाश और गति ही हो तो समस्त पुद्गल पिण्ड अनन्त आकाश में छितर जायेंगे और विश्व व्यवस्था समाप्त हो जायेंगी । अधर्म द्रव्य एक नियामक शक्ति है जो एक स्थिर विश्व के लिए आवश्यक है । इसके अभाव में एक ऐसी स्थिति होगी कि विश्व विश्व ही न रह जायेगा । आज जो आकाशीय पिण्ड अपने-अपने यात्रा पथ में अवस्थित रहते हैं - जैनों के अनुसार उसका कारण अधर्म - द्रव्य है तो विज्ञान के अनुसार उसका कारण गुरुत्वाकर्षण है ।
इसी प्रकार आकाश की सत्ता भी स्वीकार करना आवश्यक है क्योंकि अनुसार आकाश मात्र एक आकाश में ही अवस्थित
आकाश के अभाव में द्रव्य किसमें रहेंगे, जैनों के शून्यता नहीं, अपितु वास्तविकता है । क्योंकि लोक है । अत जैनाचार्यों ने आकाश में लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे दो भागों की कल्पना की । लोक जिसमें अवस्थित है वही लोकाकाश है ।
इसी अनन्त आकाश में एक भाग विशेष अर्थात लोकाकाश में अवस्थित होने के कारण लोक को सीमित कहा जाता है, किन्तु उसकी यह सीमितता आकाश की अनन्तता की अपेक्षा से ही है । वैसे जैन आचार्यों ने लोक का परिमाण १४ राजू माना है, जो कि वैज्ञानिकों के प्रकाशवर्ष के समान एक प्रकार का माप विशेष है । यह लोक नीचे चौड़ा, मध्य में पतला पुनः ऊपरी भाग के मध्य में चौड़ा व अन्त में पतला है । इसके आकार की तुलना कमर पर हाथ रखे खड़े हुए पुरुष के आकार से की जाती हैं । इसके अधोभाग में सात नरकों की अवस्थिति मानी गयी है - प्रथम नरक से ऊपर और मध्य लोक से नीचे बीच में भवनपति देवों के आवास है । इस लोक के मध्य भाग में मनुष्य एवं तिर्यंचों का आवास है । इसे मध्य लोक या तिर्यञ्च - लोक कहते हैं । तिर्यञ्च लोक के मध्य में मेरु पर्वत है, उसके आसपास का समुद्र पर्यंत भू-भाग जंबूद्वीप के नाम से जाना जाता है । यह गोलाकर है । उसे वलयाकार लवण समुद्र घेरे हुए है । लवण समुद्र को वलयाकार में
खंड १९, अंक १
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