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किया और कालान्तर में वे भारत सरकार के सुरक्षा मन्त्रालय में वैज्ञानिक परामर्शदाता नियुक्त हुए । १९६१-७३ तक वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष रहे और इस दौरान वे शिक्षा आयोग के अध्यक्ष नियुक्त किये गये । यदि उनकी शिक्षा आयोग (१९६४-६६) की रिपोर्ट को शिक्षा क्षेत्र का बाईबल कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस रिपोर्ट का शीर्षक उन्होंने रखा--"शिक्षा और राष्ट्रीय विकास।" इस रिपोर्ट में राष्ट्रीय शिक्षा, उन्नति और सुरक्षा का क्या पारस्परिक सम्बन्ध है, इसकी प्रबल शब्दों में व्याख्या की गई है तथा सामयिक और भविष्य में आने वाली चुनौतियों का अनाग्रह-शिक्षा के द्वारा कैसे सामना किया जा सकता है, इसका दिग्दर्शन किया गया है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि विद्यार्थियों को विद्यालयों से निकलने के बाद सांसारिक और व्यापारिक जगत् में प्रवेश करने की समुचित कुशलता प्राप्त हो इस उद्देश्य से स्कूल के पाठ्यक्रम में समुचित प्रबन्ध किया जाना चाहिये । ना केवल उन्हें औद्योगिक शिक्षा ही दी जानी चाहिये, बल्कि इस बात का भी ध्यान रखा जाएं कि उनमें समाजसेवा, सहिष्णुता और सहयोग की भावना जागृत हो, जिससे वे अच्छे नागरिक बनकर समाज के ऋण से उऋण हो सकें।
डा. कोठारी लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक नीलस्बोहर के पूरकवाद के सिद्धांत के समर्थक थे। उनका कहना था कि परस्पर विरोधी तत्त्वों के मिलाप से सम्पूर्णता प्राप्त होती है और इस प्रकार के परस्पर सहयोग अथवा मिलाप का आधार अहिंसा ही हो सकता है । इस सत्य की व्याख्यता करते हुए एक बार उन्होंने कहा कि ईसाईयों की दृष्टि से, "मैं ब्रह्म हूं," ऐसा मानना ईशनिन्दा अथवा धर्म निन्दा है। ऐसे ही मुसलमानों की दृष्टि में भी ये कुफ है, लेकिन जो पहुंचे हुए पुरुष हैं, जब वे कहते हैं", "मैं हक हूं" "मैं सत्य हूं," "अहम ब्रह्मास्मि' उनकी अनुभूति को तिरस्कारना क्या विज्ञान के अनुकुल होगा ? सत्य तो यह है कि एक बाहरी संसार है और एक अन्दुरनी । बाहरी संसार की भी अभी अल्पज्ञ मनुष्य को बहुत खोज करनी बाकी है । किन्तु अन्दुरनी ससार की खोज तो अभी शुरु ही हुई है। यों मानिये, इस क्षेत्र में हमारी स्थिति वह है जो मारकोपोलो से पहले भूगोल शास्त्रियों की थी। हां, भारतीय ऋषियों मुनियों ने तपश्चर्या अथवा योग दष्टि से बहुत से जटिल प्रश्नों का उत्तर ढूंढ निकाला था, जो वेदों, उपनिषदों गीता एवं जैन साहित्य में विद्यमान है । डा० कोठारी प्रश्न किया करते थे क्या उसे तिरस्कृत करना वैज्ञानिक होगा ?
उनका कहना था कि जैनदर्शन का स्याद्वाद और अनेकान्तवाद भी यही कहता है और इस प्रकार ये सत्य और अहिंसा का मार्ग प्रशस्त करता है : ऐसे ही उपनिषद तथा गीता भी पारस्परिक पूर्णत्व के सिद्धांत का प्रति
खंड १९, अंक १
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