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के प्रयोग हो रहे हैं । सौभाग्य से मनुष्य के स्तर पर पेट में भोजन जल्दी पच सके ऐसा कोई प्रयोग विज्ञान ने नहीं सोचा है । यह इस बात का सूचक है कि विज्ञान ही सब कुछ नहीं है, अध्यात्म का भी महत्त्व है।
विज्ञान के लिए सब कुछ एक यन्त्र है, एक पदार्थ है। अध्यात्म के लिए सब कुछ जीवित है, एक काया है। यहां तक कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु भी एक जीव की काया है, जड़ परमाणुओं का संघात मात्र नहीं । चेतना सर्वव्यापक है । मनुष्य अपने को भोक्ता समझे और प्रकृति को भोग्य समझे; यह समझ इस मिथ्या धारणा पर टिकी है कि मनुष्य चेतन है और प्रकृति जड़ है, इसलिए मनुष्य को प्रकृति के शोषण का अधिकार है। मनुष्य जाति के इतिहास में एक समय था कि स्त्री भी पुरुष की सम्पत्ति समझी जाती थी। पुरुष स्त्री को जड़ पदार्थ की तरह उपयोग में लेता था। आज भी हम पशु को अपनी सम्पत्ति समझते हैं। हम यह नहीं मान पा रहे हैं कि पशु का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है । वह हमारा सहयोगी हो सकता है, सम्पत्ति नहीं। ऐसी दृष्टि होने पर ही पशु के प्रति बरती जाने वाली क्रूरता समाप्त हो सकती है । जगदीशचन्द्र बोस के बाद तो अब वनस्पति भी हमारे समान एक जीवित इकाई हो गई । वह भी "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" के क्षेत्र से बहिर्भूत नहीं रही ! अध्यात्मवादी इससे भी आगे जाकर पर्वत और नदियों में जीवन ‘मान रहा है। उसका यह दृष्टिकोण यदि विज्ञान को यह सीख दे सके कि प्रकृति हमारी सजीव सहचरी है, निर्जीव सम्पत्ति नहीं तो निश्चय ही विज्ञान तकनीकी प्रगति में प्रकृति के उस अंधाधुन्ध शोषण से बच सकेगा जो शोषण स्वयं विज्ञान की ही प्रगति के आड़े आने लगा है।
खंड १८, अंक १
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