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सम्मत सिद्ध हो रही हैं, उन्हें स्वीकार कर लिया जाय, शेष को भावी वैज्ञानिक परीक्षणों के लिए परिकल्पना के रूप में मान्य किया जाय। क्योंकि धर्मग्रन्थों में उल्लेखित जो घटनाएं एवं मान्यताएं कुछ वर्षों पूर्व तक कपोल कल्पित लगती थी वे आज विज्ञान सम्मत सिद्ध हो रही है। सौ वर्ष पूर्व धर्मग्रन्थों में उल्लेखित आकाशगामी विमानों की बात अथवा दूरस्थ ध्वनियों को सुन पाने और दूरस्थ घटनाओं को देख पाने की बात काल्पनिक लगती थी, किन्तु आज वे यथार्थ बन चुकी हैं।
- जैनधर्म की ऐसी अनेक मान्यतायें हैं, जो कुछ वर्षों पूर्व तक अवैज्ञानिक व पूर्णतः काल्पनिक लगती थी, आज विज्ञान से प्रमाणित हो रही है। उदाहरण के रूप में प्रकाश, अन्धकार, ताप, छाया और शब्द आदि पौद्गलिक हैं-जैन आगमों की इस मान्यता पर कोई विश्वास नहीं करता था, किन्तु आज उनकी पौद्गलिकता सिद्ध हो चुकी है। जैन आगमों का यह कथन है कि शब्द न केवल पौद्गलिक है, अपितु वह ध्वनि रूप में उच्चरित होकर लोकान्त तक की यात्रा करता है, इस तथ्य को कल तक कोई भी स्वीकार नहीं करता था, किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक खोजों ने अब इस तथ्य को सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक ध्वनि उच्चरित होने के बाद अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देती है और उसकी यह यात्रा, चाहे अत्यन्त क्षीण रुप में ही क्यों न हो, लोकान्त तक होती है। जैनों की केवल ज्ञान सम्बन्धी यह अवधारणा कि केवली या सर्वज्ञ समस्त लोक के पदार्थो को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष रूप से जानता है अथवा अवधि ज्ञान सम्बन्धी यह अवधारणा कि अवधिज्ञानी चर्म-चक्षु के द्वारा ग्रहीत नहीं हो रहे दूरस्थ विषयों का सीधा प्रत्यक्षीकरण कर लेता है। कुछ वर्षों पूर्व तक यह सब कपोलकल्पना ही लगती थी, किन्तु आज जब टेलीविजन का आविष्कार हो चुका है, यह बात बहुत आश्चर्यजनक नहीं रही है। जिस प्रकार से ध्वनि की यात्रा होती है उसी प्रकार से प्रत्येक भौतिक पिण्ड से प्रकाश-किरणें परावर्तित होती हैं और वे भी ध्वनि के समान ही लोक में अपनी यात्रा करती हैं तथा प्रत्येक वस्तु या घटना का चित्र विश्व में संप्रेषित कर देती है। आज यदि मानव मस्तिष्क में टेलीविजन सेट की ही तरह चित्रों को ग्रहण करने का सामर्थ्य विकसित हो जाये, तो दूरस्थ पदार्थों एवं घटनाओं के हस्तामलकवत् ज्ञान में कोई बाधा नहीं रहेगो, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ प्रकाश व छाया के रूप में जो किरणें परावर्तित हो रही हैं वे तो हम सबके पास पहुंच ही रही हैं। आज यदि हमारे मस्तिष्क का ग्रहण सामर्थ्य विकसित हो जाय, तो दूरस्त विषयों का ज्ञान असम्भव नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन धार्मिक कहे जाने वाले साहित्य में भी बहुत कुछ ऐसा है, जो या तो आज विज्ञान सम्मत
रश
तुलसी प्रज्ञा
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