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का अपना रंग और प्रभाव भी मिश्रित है। इसलिए आत्मज्ञानी संशोधक इन साधनों की शुद्धि का शोधक और साक्षी होता है । संतों, महात्माओं व आत्मज्ञानियों के अनुभवों और अनुभूतियों की दिशा में वह उत्तरोत्तर अधिक संवेदनशील और ग्रहणशील बनता जाता है परिणामस्वरूप विषय विकार और भोग वत्ति नि:शेष हो जाती है और संकुचित तथा अशुद्ध बुद्धि का रूपांतर शुद्ध बुद्धि और हार्दिकता में होने लगता है और हार्दिकता का उत्कर्ष आत्मीयता में होने लगता है तब सर्वत्र एकता की अनुभूति होने लगती है।
जब विज्ञान शोध करते-करते उस सूक्ष्म तत्व (आत्मज्ञान) की ओर (आगे) बढ़ेगा और उसका अनुसंधान करने लगेगा तब उसे अनुभूति और प्रयोग की कुछ नयी पद्धतियां खोजनी पड़ेगी । इन्द्रियों और बुद्धि पर आधारित पद्धत्तियों से तब प्रयोगों का काम नहीं चलेगा। वैसे ही अनुभवों और अनुभूतियों को व्यक्त करने के अधिक सक्षम साधन भी खोजने होंगे । आज तो वैज्ञानिक शोधों की अभिव्यक्ति भी भाषा में करना कठिन हो जाता है इसलिए उसको गणित के अंकों से व्यक्त करना पड़ता है। आगे जाकर शायद यह अभिव्यक्ति भी कमजोर पड़ जाय । आत्मज्ञान की तो शब्दों में व्याख्या करना ही कठिन कहा जाता है । उसके अनुभव व्यक्त करने में तो भाषा और अंक दोनों कमजोर पड़ते हैं और वाणी असमर्थ हो जाती है। इन सबके अभाव में आज तो मौन (चित्त की शुद्धि व शांति) ही उस सूक्ष्म अनुभूति को स्पर्श कराने का माध्यम बनी हुई है ।
खंड १८, अंक १
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