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विज्ञान बाहर से काम करता है और आत्मज्ञान अन्दर से । दोनों का मेल मानव जीवन में होता है । ये दोनों मानवीय हैं, क्योंकि मानव ने इन दोनों को माना है। इसलिए विज्ञान और आत्मज्ञान कोई भिन्न तत्व नहीं है और न उनका कोई परस्पर विरोध है जिनका कि समन्वय करना है । यदि भिन्न तत्व हों तो उनकी एकता की आकांक्षा गलत होगी और यदि वे दोनों पूरी तरह एक हैं तो उन्हें भिन्न मानकर चलना गलत होगा। यदि एक ही तत्व के दो स्तर हैं तो उनकी सीमाएं समझकर उन दोनों का 'इन्टीग्रेटेट एप्रोच" स्वीकार करना होगा । मूलत: विज्ञान और आत्मज्ञान भिन्न नहीं हैं । एक एक प्रकार का काम करता है दूसरा दूसरी प्रकार का काम करता है और दोनों मिलकर पूर्ण काम होता है। इसलिए विज्ञान और उसके विनियोग में आत्मज्ञान का अनुसंधान नहीं छूटना चाहिए, बल्कि दोनों का समन्वय सधना चाहिए तभी मानव का और मानव जाति का समग्न और संतुलित विकास होगा। इसके अभाव में मानव का जीवन एकांगी होगा, व्यक्तित्व विच्छिन्न होगा और मानव जाति पर सर्वनाश की भयंकर आपत्ति आयेगी।
विज्ञान ने मानव को उसकी प्राणमय और मनोमय भूमिका से ऊपर उठाकर विज्ञानमय भूमिका पर अधिष्ठित किया है। प्राणियों में प्राण भूमिका होती है यानी भोग पारायणता होती है । मानव में साधारणतया मनोभूमिका यानी राग, देष पारायणता होती है और विशेषतया वैज्ञानिक भूमिका होती है। विज्ञान ने एक ऐसी परिस्थिति पैदा की है कि उसके कारण मनुष्य अब संकुचित मन में सीमित नहीं रह सकता । उसको न केवल अपने संकुचित मन को व्यापक और विशाल बनाना है बल्कि उसे मनोभूमिका से ही ऊपर उठकर वैज्ञानिक भूमिका में विचरण करना है। एक ओर आसमान में नये-नये उपग्रह फेंके जा रहे हैं, चांद को दूसरा पड़ोसी बनाया जा रहा है और दूसरी तरफ अणु-शक्ति के संहारक और विधायक प्रयोग हो रहे हैं । इन सबके कारण मनुष्य की मानसिक भूमिका समय बाह्य (आउट डेटेड) हो रही है । सृष्टि के विशाल ज्ञान और उसमें लाई हुई नवशक्ति की बाढ़ ने मनुष्य का चिंतन अन्तर्राष्ट्रीय, अन्तर्गोलीय और अन्तर्जागतिक बनाना शुरू कर दिया है फिर भी अन्तरवृत्ति और हृदय के विकास की कमी के कारण तथा चलते आये 'इनशिया' के कारण मनुष्य अपनी प्राणिक और मानसिक भूमिकाओं से घिरा हुआ है। इसके कारण यह न विज्ञान का सदुपयोग कर पाता है और न उसका सही आनन्द ही ले पाता है । मनुष्य वैज्ञानिक वृत्ति और व्यवहार से ही सच्चा सुखी और आनन्दो बन सकता है और आत्मज्ञान की ओर भी प्रगति कर सकता है। विज्ञान की विशेषताउसकी वैज्ञानिकता और शास्त्रीय दृष्टि में है । जब मनुष्य की वैसी वृत्ति और दृष्टि बनती है तब वह जीवन के हर विषय में और हर क्षेत्र में खोज
खंड १८, अंक १
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