Book Title: Tirthankar
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Tin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur

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Page 8
________________ मंगल स्मरण रयणतयं च वंदे चउबीसजिणे च सव्वदा वंदे। पंचगुरुणं वंदे चारण-चरणं सया वन्दे ॥ मैं सर्वदा सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय की वंदना करता हूँ। मैं चौबीस तीर्थकरों को सदा प्रणाम करता हूं। मैं अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय तथा सर्वसाधु रूप पंच गुरुत्रों की सदा वंदना करता हूं। मैं चारण ऋद्धिधारी मुनीश्वरों के चरणों को सदा प्रणाम करता हूँ। सयलभुवणेक्कणाहो तित्थयरो कोमुदीव कुंदवा। धवलेहि चामरहिं चउसटिहि वीज्जमाणो सो॥ जो सम्पूर्ण विश्व के अद्वितीय अधिपति हैं तथा जिन पर चंद्रिका अथवा कुंद पुष्प सदृश धवल चौसठ चामर ढुराए जाते हैं, वे तीर्थंकर भगवान हैं। धर्मतीर्थकरेभ्योस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनमः। ऋषभादि-महावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥ अनेकांत वाणी द्वारा तत्व-प्रतिपादक, धर्मतीर्थ के प्रणेता ऋषभदेव आदि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों को प्रात्म स्वरूप की प्राप्ति के हेतु मेरा बारम्बार नमस्कार हो । लोयस्सुज्जोययरे धम्म-तित्थंकरे जिणे वंदे । मैं लोक के प्रकाशक, धर्म तीर्थंकर जिन भगवान को प्रणाम करता हूँ। ॐ ह्रीं श्रीमते अर्हते धर्मसाम्राज्यनायकाय नमः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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