Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 13
________________ द्रव्यार्थिक नयसे नित्य, पर्यायार्थिक नयसे अनित्य है संकर आदि ८ दोषोंका कथन प्रमाणकी अपेक्षा वस्तु जात्यंतर रूप है सूत्र ३३ परमाणु सांश व निरंश सूत्र ३४ जघन्यका अर्थ एक नहीं है किन्तु निकृष्ट है अर्थात् जिससे कम न हो सके परमाणुमें सदा अबंध रहनेका नियम नहीं हैं सूत्र ३५ गुण साम्य होनेपर विदृशमें बंध नहीं होगा सूत्र ३६ सदृश व विदृश गुण वालोंका द्वि अधिक गुण होनेपर बंध होगा सूत्र ३० बंध हो जाने पर अधिक गुण वाला बंध रहे अन्य द्रव्योंको स्वकीय गुणानुरूप परि मन करा देता है परमाणुका परमाणु के साथ मात्र संयोग सम्बन्ध नहीं होता है बंध होकर स्कंधरूप तीसरी अवस्था हो जाती है। परिणामके बिना परिणामों और परिणामी के बिना परिणाम नहीं हो सकता। तथा ज्ञानके बिना आत्माका भी अभाव हो जाता है सूत्र ३८ द्रव्यका निरुक्ति लक्षण `सत् तथा 'गुणपर्ययवद्यं इन दोनों लक्षणका सम्बन्ध अनेकान्तकी सिद्धि सूत्र ३९ पदार्थोंकी क्रमवर्ती पर्यायोंमें वर्तनारूप कारण होना काल द्रव्यकी पर्याय है ३६१ ३६२ ३६३ ३६५३०४ ३७२ २७५-३८३ ३७६ ३८३ ३८३-३८५ ३८४ ३८५-३८८ ३८७ ३८८-३९३ ३८९ ३९०-९१ ३९३ ३९३ -४०५ ३९४ ३९५ ३९८ ४०५-४०८ ४०६ [१२] सूत्र ४० काल अनन्त समयवाला है यह व्यवहार भावका अर्थ पर्याय है एक द्रव्य अपनी अपनी भिन्न-भिन्न शक्तियों के बिना यह अनेक कार्योंका सम्पादन नहीं कर सकता सूत्र ४१ गुण द्रव्यके आश्रय रहते हैं - मुख्यके अभाव में उपचार संभव नहीं है। पर्यायोंके निषेधके लिये 'निर्गुणा' शब्द दिया गया सूत्र ४२ 'तद्भाव परिणाम' द्वारा पर्याय का लक्षण कहा गया 'पर्याय' सहभावी और क्रमभावी दो प्रकारकी है संक्षेपसे इम्याधिक और पर्यायाधिक दो नय कही गई विस्तारसे तीन आदि अनेक नय है । अध्याय ६ सूत्र १ योग आस्रव का कारण है अतः सर्व प्रथम योग का कथन किया गया बंध दो पदार्थों में होता है। अनेक पदार्थों को कथंचित् एक हो जाने की बुद्धि को उपजाने वाला संवन्ध विशेष बंध है शरीर वचन और मन वर्गणाके आलम्बनसे आत्म प्रदेशोंका परिस्पंदन क्रिया है अयोग केवली और सिद्धों के योग नहीं है अतः दोनों अयोगी हैं। सिद्ध भगवान् अव्यपदेश चारित्रसे तन्मय है सत्र २ केवली समुद्धातमें भी सूक्ष्म काय योग होता है ४०९-४१३ ४१०. ४११ ४११ ४१४-४१७ ४१५ ४१५-१६ ४१६ ४१७-४२१ * ४१९ ४१९ ४३१-४३५ ४३२ ४३३ ४३४ ४३४ ४३४ ४३६-४३९ ४३६

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