________________ 108 आचार्यश्री वीरसागरजी का सान्निध्य मिला। अष्ट मूलगुण धारण कर माघ शुक्ला नवमी कृतिका नक्षत्र में सातवीं प्रतिमा के व्रत से संस्कारित हुई भंवरी बाई ने अपने आपको संयम की सीमा में बाँधने का क्रम जारी रखा। इसी बीच संस्कृत की प्रारंभिक शिक्षा, धार्मिक शिक्षा एवं शास्त्राभ्यास की कड़ियाँ भी जुडीं। ब्र. राजमलजी (अनन्तर आचार्य अजितसागरजी) से संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की और बढ़ चली अध्ययन की साधना का एक आधारस्तम्भ बनने। . भारतीय संस्कृति, श्रमण संस्कृति, देश के अनेक नगरों, ग्रामों, जन-जीवन, भाषा, क्षेत्र, पर्यावरण आदि का प्रत्यक्ष-परोक्ष अनुभव-परीक्षण करते हुए भँवरी बाई को अपने आपको कसौटी पर कसने का अवसर मिला। मन में अपूर्व उल्लास था, संयम-साधना के प्रति दृढ़ विश्वास था और जिनधर्म के प्रति अटूट श्रद्धा थी। इन सबका समागम धारण किये भँवरी बाई ने पूज्य आचार्य वीरसागरजी से संवत् 2014 भाद्रपद शुक्ला 6, रविवार, स्वातिनक्षत्र, आचार्य वीरसागरजी, आचार्य महावीरकीर्तिजी दो आचार्य, शिव, श्रुत, धर्म, जय, पद्म, सन्मति, विष्णु 7 मुनिराज, वीरमती, सुमतिमती, पार्श्वमती, इन्दुमती, सिद्धमती, शांतिमती, वासुमती, ज्ञानमती, धर्ममती - 9 आर्यिकाएँ एवं 9 क्षुल्लक-क्षुल्लिकाएँ- ऐसे 27 साधुओं के समक्ष नारीजीवन का सर्वोच्च पद, आर्यिका पद ग्रहण किया और आर्यिका सुपार्श्वमती के नाम से अपने नये जीवन की बागडोर संभाली। - स्व-पर कल्याण की भावना लिये आर्यिका सुपार्श्वमतीजी को मनवांछित फल की प्राप्ति हुई। वर्षों की साधना, शास्त्रों का अध्ययन, मुनि-आर्यिकाओं की चर्या आदि अनेक विधाओं का ज्वार उनकी प्रवचनधारा के रूप में प्रस्फुटित होने लगा। उनके उपदेशों से क्या बालक, क्या वृद्ध, क्या अमीर, क्या गरीब सभी के मन में धर्म के प्रति एक नई आस्था का उद्भव हुआ। जैन समाज में मानों व्रतधारण, संयमित जीवन, जैन सिद्धांतों के प्रति अटूट श्रद्धा-विश्वास, गृहस्थों के कर्त्तव्य, श्रावकों के कर्त्तव्य, मुनि-आर्यिकाओं के प्रति उनके कर्तव्य आदि को समझने, पालने एवं अनुकरण करने की मानों होड़ सी लग गई। जैनधर्म की महती प्रभावना करती हुई, अपनी सम्मोहक शैली में मानव की अंतरंग भावना को झंकृत करती हुई, वात्सल्य से परिपूर्ण इस प्रसन्नमूर्ति ने पूरे भारत के तीर्थक्षेत्रों की वंदना की। चारों ओर अमिट धर्मप्रभावना की छटा बिखेरते हुए आर्यिकाजी के संघ का संस्कारधानी जबलपुर (म.प्र.) में आगमन हुआ। आपके प्रवचनों एवं आपकी भावना का सबसे अधिक प्रभाव मुझ पर पड़ा और मैंने आर्यिका जी का सान्निध्य पाने, धर्ममार्ग पर बढ़ने और जीवन के नूतन अनुभव को प्राप्त करने का संकल्प किया। परिवार से विमुख होकर माताजी का दामन पकड़ लिया और उनकी छत्रछाया में रहने हेतु निवेदन किया। पूज्य माताजी ने अपनी अनुभवी दृष्टि से मुझे परखा और पूर्ण वात्सल्य भाव से मुझे संघ में स्थान दिया। आर्यिका इन्दुमतीजी एवं आर्यिका सुपार्श्वमतीजी के साथ संघस्थ सभी आर्यिकाओं का मुझे आशीर्वाद मिला। संघ का प्रस्थान पावन भूमि सम्मेदशिखर की ओर हुआ और वहाँ पहुँचकर संघ ने मानों एक छोटा विराम लिया। तीर्थराज पर श्रावकों की भावनाओं को समझते हुए आर्यिकासंघ द्वारा भारत के पूर्वांचल के भ्रमण का एक अभूतपूर्व साहसिक निर्णय लिया गया और आर्यिका सुपार्श्वमतीजी ने अपनी सम्मोहक शैली से सारे पूर्वांचल में मानों एक नई ऊर्जा का संचार किया। साधु-साध्वियों के विहार से अछूते रह गए इस अंचल में इस आर्यिकासंघ को प्रथम प्रवेश का श्रेय प्राप्त हुआ। आसाम, नागालैण्ड, बंगाल आदि राज्यों के दुर्गम