Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 10
________________ 卐 दो शब्द // विश्व में सब प्रकार की वस्तुएँ या विभूतियाँ सरलता से उपलब्ध हो सकती हैं, किन्तु आत्मोद्धार की विद्या या ज्ञान का प्राप्त होना दुर्लभ और कष्टसाध्य है। उपदेशक तो बहुत हैं पर सच्चा उपदेशक मिले तो ज्ञान की दुर्लभता सुलभता में परिवर्तित हो सकती है। ज्ञान के चरमोत्कर्ष को प्राप्त रत्नत्रयविभूषित महर्षि विद्यानन्द ने आचार्य गृद्धपिच्छ के सुप्रसिद्ध 'तत्त्वार्थसूत्र' पर कुमारिल के 'मीमांसाश्लोकवार्तिक' और धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक' की तरह 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार' पद्य में लिखा है। साथ ही पद्यवार्तिकों पर स्वयं भाष्य अथवा गद्य में व्याख्यान लिखकर भव्य जीवों पर महान् उपकार किया है। अतः हम इन्हें कोटि-कोटि नमन करते हैं। प्रातःस्मरणीय परमपूज्य स्वर्गीय आचार्यदेव श्री वीरसागरजी महाराज के पुनीत चरणों में मैं केवलज्ञान के अविभागी प्रतिच्छेद प्रमाण नमस्कार करती हूँ, जिन्होंने दीक्षा देकर मुझे शिवपथ के योग्य बनाया और मेरी आशा पूरी की। केवल मन में यही आस-चेतन के ऊर्ध्वारोहण का आत्मा में फैले दिव्य प्रकाश'-लेकर और आचार्य महावीरकीर्तिजी, आचार्य शिवसागरजी, आचार्य धर्मसागरजी, आचार्य अजितसागरजी सदृश महान् गुरुओं का आशीर्वाद पाकर तथा उनकी चरण-रज रूपी कुंकुम को अपने भाल पर अंकित कर सतत आगे बढ़ने का प्रयास कर रही हूँ। भूला नहीं जा सकता-प्रेम, करुणा, वात्सल्य और दया की अनुपम भण्डार माता इन्दुमतीजी को-जिन्होंने मेरे जीवन को सार्थकता प्रदान की। मुझ अज्ञानी, अल्पज्ञ-संस्कृत, प्राकृत तो दूर जिसे ठीक से हिन्दी बोलना भी नहीं आता था-ऐसी मुझ भूली-भटकी को आपने अपनाया तथा अगाध वात्सल्य से शिवपथ के योग्य बनाया। ऐसी पूज्य माताजी की मैं चिर-ऋणी हूँ और प्रभु से सदैव यही प्रार्थना करती हूँ कि अपने चारित्र का निर्दोष पालन करती हुई मैं भी उनकी तरह की यम सल्लेखना अंगीकार कर सकूँ। . . मैं डॉ. चेतनप्रकाशजी पाटनी को धन्यवाद देती हूँ जिन्होंने ग्रन्थ के संशोधक, सम्पादक के रूप में अपना विशेष सहयोग दिया है। वे सदैव मेरे हार्दिक आशीर्वाद के पात्र हैं। समय-समय पर अनेक प्रकार से सहयोगकी डॉ. प्रमिलाजी को भी आशीर्वाद देती हैं। श्री डूंगरमलजी सुरेश कुमार जी पाण्डया, जयपुर निवासी ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन का सम्पूर्ण व्ययभार वहन किया है। मैं प्रकाशक दम्पति एवं उनके सम्पूर्ण परिवार को आशीर्वाद देती हूँ और यही भावना भाती हूँ कि उनके द्वारा इसी प्रकार जिनवाणी का प्रचार एवं प्रसार होता रहे। इस ग्रन्थ की वर्तमान प्रस्तुति में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में जो-जो मेरे सहयोगी बने, मैं उन सभी को आशीर्वाद देती हूँ। भाषान्तर करते समय मैंने आगम के अर्थ का पूर्ण ध्यान रखा है तथापि अज्ञान या प्रमाद से रही त्रुटियों के लिए मैं सुधी पाठकों से क्षमाप्रार्थी हूँ। - आर्यिका सुपार्श्वमती

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