________________ + 2 + - 卐 भंवरी भँवर से पार // वीणावादिनी की वीणा के तारों का मधुरिम गुंजन, कण्ठ विराजा जिनके ऐसी माँ सुपार्श्व को शत वंदन / सरिता सम प्रवाहित शब्दों का मन को छूता स्पन्दन, बरबस थामे रहता हर सुनने वाले का चंचल मन / / परम्पराओं की कड़ियों का जुड़ना इतिहास और संस्कृति को जन्म देता है। संस्कृति समाज की आधारशिला बनती है और समाज बनता है मानव-व्यक्तित्व के विकास का स्तंभ। इतिहास, संस्कृति और समाज की यह त्रिवेणी कालचक्र द्वारा भी अवरुद्ध नहीं हो पाती है। हाँ ! क्षेत्र-काल-परिस्थिति के अनुसार उसकी दिशा-उत्थान-पतन आदि में परिवर्तन का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है क्योंकि परिवर्तन तो सृष्टि का नियम है। राजस्थान की शूरतापूर्ण माटी से अनेक इतिहास जुड़े हैं, संस्कृतियाँ जन्मी हैं। उसमें अनेक. गौरवगाथाओं का जन्म हुआ है। मानव मात्र की भलाई के लिए, उनके उत्थान के लिए, उन्हें धर्ममार्ग पर प्रेरित करने के लिए समय-समय पर आदर्श विभूतियों का अवतरण हुआ है। राजस्थान के ही बीकानेर जिले के ग्राम मेनसर में श्रेष्ठिवर श्री हरकचंदजी चूडीवाल के आँगन में उनकी पत्नी श्रीमती अणची देवी की गोद में एक बालिका का अवतरण हुआ। वह शुभ दिन था- फागुन शुक्ला नवमी, विक्रम संवत् 1985, शुक्रवार, मृगशिरा नक्षत्र / हर्षोल्लासपूर्ण वातावरण में बालिका को भंवरी' नाम से अलंकृत किया गया। समाज व संस्कृति के बीच संवरित वह बालिका बचपन की देहलीज पार करने को अग्रसर हुई। काश! बाल्यावस्था ठहर जाती। परन्तु कर्म-रेख कुछ और दर्शा रही थी। अग्निताप की पराकाष्ठा पार करके ही स्वर्ण कसौटी पर खरा उतरता है। उत्कृष्ट व्यक्तित्व का निर्माण भी कर्म-रेख द्वारा निर्मित इष्टानिष्ट पड़ावों को पार करके ही संभव है। विपदाओं के बीच ही रचनाकार-साहित्यकार का निर्माण होता है। भंवरी को भी भवरूपी भंवर से मुक्ति हेतु अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा। बचपन की देहरी पर वैधव्य का सामना ! उस अबोध बालिका की नियति के साथ यह एक क्रूर अन्याय नहीं तो और क्या था ? आँसुओं की गंभीरता से भी अनभिज्ञ को आँसुओं के सागर में उतार दिया। भंवरी तो इसे बड़ी सहजता से देख रही थी। कभी-कभी आश्चर्यमिश्रित भावों की स्पष्टता परिलक्षित होती थी। समाज के रीति-रिवाजों और संस्कृति ने उसे परिस्थिति का आभास कराया। सुदीर्घ भविष्य के प्रति गंभीरतापूर्वक मनन के लिए प्रेरित किया। भाग्य ने करवट ली, पूज्य 105 आर्यिका इन्दुमतीजी का सान्निध्य मिला। पत्थर को आकार पाने का अवसर मिला। बालिका भंवरी वैधव्य की कालीघटा को लाँघ कर चल पड़ी संसार की असारता से साक्षात्कार करने। मुक्तिमार्ग की प्रथम सीढ़ी पर पग रखा। 20 वर्ष की वय में ब्रह्मचारिणी परिधान की परिधि में संयमित हुई। अनेक तीर्थों की वंदना-भ्रमण करते हुए आर्यिका इन्दुमतीजी के अनुशासन-संरक्षण में पूज्य