Book Title: Tapagaccha Shraman Vansh Vruksh
Author(s): Jayantilal Chottalal Shah
Publisher: Jayantilal Chottalal Shah

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Page 58
________________ श्रमण वंशवृक्ष मागतो हतो. एमणे संप्रदायजी दुहाईनी परवा न करतां आगळ अभ्यास चलाव्यो. पण एनु परिणाम विलक्षण ओव्यु. स्था० संप्रदाय परथी तेमनी श्रद्धा हटी गई. अनेक आपत्तिओ सामे थई तेओ वि. सं. १९३१मा २० साधुओ साथे संप्रदायथी जूदा पड्या ने पंजाबमां सद्धर्मनी प्ररूणता करवा लाग्या. ___जिनमूर्ति, जिनमंदिर ने शास्त्रनी साची प्ररूपणा करता सहु साधुओनी इच्छा शत्रुजय-गिरनार वगेरे तीर्थोनी यात्रा करवानी थई. अने इ. स. १९३२मां गूजरात माटे प्रयाण आदर्यु. अमदावादमा ते वखते परम प्रतापी बुटेरायजी महाराजनी हाक वागती. आत्मारामजी महाराजनुं अमदावादे अभूतपूर्व स्वागत कयु. यतिवर्ग अने बीजा उत्सूत्र प्ररूपको सामे आत्मारामजीए जबरी जेहाद जगवी. वि. सं. १९३२मां तेओए श्री बुटेरायजी महाराज पासे संवेगी दीक्षा स्वीकारी. साथेना १५ साधुओ तेमना शिष्य थया. वि. सं. १९३३नु चतुर्मास भावनगरमां करी तेओ पुनः पंजाब तरफ गया. सं. १९३७र्नु चतुर्मास गुजगनवालामां कयु. अहीं तेमणे 'जनतत्वादश' नामक सुन्दर गन्थनी रचना करी. हेर ठेर नवा जैनो बनाव्या, नवां जिनमंदिरो स्थाप्यां. अनेक शास्त्रार्थो करी परमतवादिओने परास्त कर्या. आम पांच वर्ष सुधी पंजाबने खेडी तेओ पुनः सं. १९४०मां गूजगत तरफ पाला वळ्या, अने ते चोमासु बीकानेरमा कयु. गूजगतमां आवीने नगरशेठ प्रेमाभाई अने शेठ दलपतभाईना पूर्ण सहकारथी १५० जेटलां सुन्दर जिनबिम्बो पंजाबमां मोकल्यां. पालीताणानी यात्रा करीने पाछा फरतां खंभातना प्राचीन भंडारोए एमना विद्याव्यासंगी दिलने खूब आकष्यु. अहीं एक मासनी स्थिरता करी. 'अज्ञानतिमिरभास्कर' नामनो महत्त्वनो ग्रंथ आ वखते रचायो. अहींथी तेओ सुरत गया ने चतुर्मास पण त्यां कयु. सुरतमा लाडुआ श्रीमाळीने संघमां लेवानी तेमणे हिलचाल उपाडी तेमज बीजां अनेक सुंदर कार्यो कयां. चतुर्मास पूर्ण थतां तेओ भरुच, वडोदरा, उमेटा, बोरसदना रस्ते थई अमदावाद आव्या. मुंबई पधारवानो खूब आग्रह हतो, पण क्षेत्रस्पर्शना ज नहोती. आ वेळा पालीताणाना झगडान समाधान थवाथी तेओश्री पालीताणा पधार्या अने त्यां ज चतुर्मास कयु. जैनसमाजमां तेमनो शासनप्रेम अने विद्वत्ता जाहेर थई गयां हता. जेना परिणामे पालीताणामां ज तेमने खूब मोटा ठाठमाठथी आचार्यनी पदवी अपाणी. संवेगी दीक्षानुं नाम आनंदविजयजी हतुं एटले विजयानंदसूरि तरीके ओळखाया. सं. १९४४नु चतुर्मास २२ साधुओ साथे राधनपुरमा कयु ने अत्रे पंजाबकेसरी श्री विजयवल्लभसूरिजीने दीक्षा आपी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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