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ताओ उपविषद भाग ५
जाएगा।
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तुम्हारा भी कोई कसूर नहीं है। तुम जैसे हो वैसे हो। जैसे हम पानी में सीधी लकड़ी को भी डालें तो वह तिरछी होकर दिखाई पड़ने लगती है। क्योंकि पानी का स्वभाव पानी का स्वभाव है। पानी में जैसे ही कोई किरण प्रवेश करती है प्रकाश की, वह तिरछी हो जाती है। लकड़ी को जब तुम देखते हो पानी में तो वह तिरछी दिखाई पड़ती है, क्योंकि प्रकाश की किरण के द्वारा ही देखी जा सकती है। सीधी लकड़ी पानी में तिरछी दिखाई पड़ती है।
राजपथ पर चलने वाले ज्ञानियों के पीछे पगडंडियां निर्मित होती हैं, क्योंकि अज्ञानी का मन और अज्ञानी के मन के नियम हैं। और दो ही उपाय हैं ज्ञानियों के लिए; दोनों उपाय किए जा चुके हैं।
एक उपाय है बुद्ध का जो कृष्णमूर्ति कर रहे हैं : मत करो पूजा, मत मानो गुरु, मत कहो भगवान। कोई फर्क नहीं पड़ता। कृष्णमूर्ति को मानने वाले भक्त हैं, जो उन्हीं को मानते हैं और किसी को नहीं मानते, और जो उनके शास्त्रों की पूजा करेंगे। जो अभी भी पूजा कर रहे हैं; और जिनके हृदय में संप्रदाय पैदा हो ही चुका है। कृष्णमूर्ति के मरते ही संप्रदाय गठित हो जाएगा। एक उपाय यह है जो बुद्ध, कृष्णमूर्ति ने किया।
दूसरा उपाय कृष्ण का, महावीर का है; जो मैं कर रहा हूं। वह उपाय यह है कि जब तुम बनाओगे ही संप्रदाय तो बेहतर है कि मैं खुद ही बना दूं। कम से कम तुम जैसा बनाओगे, उससे बेहतर मैं बना सकता हूं। और जब यह होने ही वाला हो तो बेहतर है कि इसे मैं अपने रहते ही तैयार कर दूं। तुम जैसा बनाओगे, उससे यह बेहतर होगा।
कृष्णमूर्ति का संप्रदाय तुम बनाओगे; मेरा संप्रदाय मैं बनाए देता हूं।
और तुम पक्का जानना कि कृष्णमूर्ति के पीछे जो संप्रदाय बनेगा वह ज्यादा खतरनाक होगा। होगा ही, क्योंकि कृष्णमूर्ति ने बनाने में कोई सहायता न दी। मेरे पीछे जो बनेगा, संप्रदाय तो जितना खतरनाक होता है उतना होगा, लेकिन कृष्णमूर्ति वाले संप्रदाय से कम खतरनाक होगा। क्योंकि मैंने तुम्हें साथ दिया। मैंने तुम्हें वस्त्र दिए, नाम दिए, संन्यास दिया। मैंने तुम्हें सब सुविधा दी है संप्रदाय के बना लेने की। क्योंकि मैं जानता हूं, जो होने ही वाला है वह होने ही वाला है। अच्छा यही होगा कि मैं साथ दे दूं। थोड़ा सुगढ़ होगा। थोड़ा ज्यादा दूरगामी होगा। राजपथ के थोड़ा करीब होगी पगडंडी। तुम जो बनाओगे वह बहुत दूर निकल जाएगी। राजपथ के सहारे ही बनेगी तो राजपथ के किनारे-किनारे ही होगी। उस पगडंडी से राजपथ पर आ जाना ज्यादा मुश्किल न होगा। जब भी तुम चाहोगे, एक छलांग, और तुम राजपथ पर आ जाओगे।
अगर तुम, मैं कहूं कि मत बनाओ संप्रदाय, फिर बनाओगे तो मेरे विपरीत बनाओगे, जैसा कि बुद्ध के विपरीत बना, जैसा कि कृष्णमूर्ति के विपरीत बन रहा है, बनेगा। जब तुम मेरे विपरीत बनाओगे तो राजपथ से बहुत दूर हट कर बनाओगे। बनाना ही पड़ेगा, क्योंकि मेरे विपरीत बनाओगे। राजपथ के पास मैं बनाने भी न दूंगा। तब उस पगडंडी से लौटना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
और दो ही उपाय हैं। ज्ञानियों ने दोनों उपाय कर लिए हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता। अपने-अपने चुनाव की बात है। सवाल ज्ञानी की चिंता का नहीं है, सवाल तुम्हारी समझ का है। तुम्हारी समझ ही अंततः निर्णायक होगी। क्योंकि ज्ञानी तो जा चुकेगा; सिर्फ उसकी याद रह जाएगी तुम्हारे हृदय में गूंजती। उस याद का तुम क्या करोगे? उससे तुम संप्रदाय बनाओगे? या उस याद से तुम धर्म के राजपथ पर प्रवेश करोगे? वह याददाश्त तुम्हें पुकारेगी स्वभाव और धर्म की तरफ; या उस याददाश्त को तुम अपनी तिजोड़ी में छिपा कर पूजा करने लगोगे? वह याददाश्त पुकार बनेगी, आवाहन, प्यास; या वह याददाश्त एक खिलौना हो जाएगी और तुम उससे अपना मन बहलाओगे? यह तुम पर निर्भर है। ज्ञानी धर्म में जीता है। यह तुम पर निर्भर है कि तुम धर्म में जीओगे या संप्रदाय में। यह तुम्हारा निर्णय है। और ज्ञानी क्या कर सकता है?
ज्ञानी के लिए दो विकल्प हैं। वे दोनों ही किए गए हैं।
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