Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 390
________________ ताओ उपनिषद भाग ५ छाया से, परछाईं से लड़ोगे। तुम अपनी शक्ति व्यय करोगे। इस तरह जीतोगे किसे? वहां छाया है; जीत भी गए तो हाथ कुछ न लगेगा। और हार गए तो बुरी होगी हार; आत्मविश्वास खो जाएगा। दो खतरे हैं : स्थगन और संघर्ष। दोनों से खतरे से बचने का उपाय है : जो करना हो उसे एक क्षण भी टालना मत। यही क्षण है वह जब उसे कर लेना। कल कभी आता नहीं। बस वर्तमान अकेला अस्तित्व है। और इस क्षण से तुम क्षण भर को भी हटे, कहीं तुमने और आशा बांधी कि तुम भटके। और जब कदम उठाओ तो तुम्हारा कदम अस्तित्व के साथ सहयोग का कदम हो, समर्पण का। विरोध का नहीं, संघर्ष का नहीं। क्योंकि जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने बह कर जाना है नदी की धार के साथ। तैर कर, धार के विपरीत तैर कर किसी ने कभी नहीं जाना। वह जो धार के विपरीत तैरना चाहता है अहंकार, वही तो बाधा है। जब तुम बहते हो तब कोई अहंकार निर्मित नहीं होता; क्योंकि तुम कुछ कर ही नहीं रहे हो। इसलिए लाओत्से का बड़ा जोर निष्क्रियता पर है, क्योंकि निष्क्रियता में अहंकार के बनने की कोई संभावना नहीं रह जाती। जरा सा कर्म, और अहंकार बनता है। मैंने किया, मैंने जीता, मैंने पाया; मेरा चरित्र, मेरा ज्ञान, मेरा त्याग, मेरा धन; सब से मैं निर्मित होता है। कुछ किया ही नहीं; न चरित्र करके पाया, न ज्ञान करके पाया। निष्क्रियता में हुआ उदभूत चरित्र; निष्क्रियता में फला ज्ञान, निष्क्रियता में फैला प्रकाश; तुम्हारा किया कुछ न हुआ; अनकिए सब हुआ। फिर कैसा अहंकार? समर्पण निष्क्रियता है; संघर्ष कर्म है। ये दो खतरे हैं प्रथम चरण के। अंतिम चरण के भी दो खतरे हैं। उन्हें भी हम समझ लें; फिर सूत्र में प्रवेश आसान हो जाए। अंतिम चरण का पहला खतरा तो यह है, जो कि वे सभी लोग जानते हैं जिन्होंने कभी भी पैदल कोई यात्रा की हो; और यह यात्रा पैदल यात्रा है, कोई यान नहीं है परमात्मा तक जाने के लिए, तुम्हें अपने दो छोटे पैरों पर ही सारा भरोसा रखना है। अगर तुमने कभी भी कोई पैदल यात्रा की है-तुम बद्री-केदार गए हो, तुम कोई तीर्थ पर गए हो, हज गए हो, या ऐसे ही कभी तुम किसी पहाड़ पर सूर्योदय का दर्शन करने गए हो-तो तुम्हें पता होगा, जब मंजिल करीब आ जाती है तभी थकान सबसे ज्यादा मालूम होती है। जब तक दूर होती है तब तक तो तुम आशा के बंधे चलते रहते हो; अपने को किसी तरह खींचते रहते हो कि बस थोड़ी दूर और, बस थोड़ी दूर और। समझाए रखते हो कि चार कदम और चल लो, पहुंच जाओगे। लेकिन जब मंजिल बिलकुल सामने आ जाती है, तुम मंदिर के द्वार पर पहुंच जाते हो, तब तुम सुस्ताने बैठ जाते हो कि अब तो कोई भय न रहा, मंजिल आ ही गई। साधारण यात्रा में तो कोई खतरा नहीं है, क्योंकि तुम सुस्ताओ मंदिर की सीढ़ी पर बैठ कर तो मंदिर दूर नहीं हो जाएगा। लेकिन उस परम यात्रा में खतरा है; क्योंकि वह कोई थिर मंदिर नहीं है। वह जो मंदिर है परम सत्य का वह कोई जड़ वस्तु नहीं है कि कहीं रखी है। वह तो तुम्हारी भावदशाओं पर निर्भर है उसकी दूरी और फासला। जब तक तुम चलते रहते हो, वह पास है। जैसे ही तुम ठहरते हो, वह दूर हो गया। जब तक तुम बहते रहते हो, वह पास है। जैसे ही तुम सुस्ताते हो, वह दूर हो गया। तो अगर परम मंजिल के पास पहुंच कर-जब तुम्हें दिखाई पड़ने लगा सब, तब तुम्हारा पूरा मन कहेगा कि अब तो सुस्ता लो, अब कोई जल्दी नहीं है, अब तो सामने ही द्वार है, थकान मिट जाएगी, उठेंगे, द्वार खोल लेंगे-अगर तुमने तब नींद लगा ली, सुस्ताने लगे, आलस्य ने पकड़ लिया, तो जब तुम आंख खोलोगे तुम अपने को वहीं पाओगे जहां से यात्रा शुरू की थी। मंदिर तुम्हें दिखाई न पड़ेगा। तुम पाओगे, अपने घर के द्वार पर बैठे हो। क्योंकि उससे दूर होने का एक ही रास्ता है, वह है आलस्य। उससे दूर होने की एक ही व्यवस्था है, वह है प्रमाद। यह खयाल ही, कि पहुंच गए, खतरा है। जैसे ही यह खयाल आया कि पहुंच गए, पैर ढीले पड़ने लगते हैं, सुस्ताने 380

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