Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 418
________________ ताओ उपनिषद भाग ५ सके। तुम थे ही नहीं। शरीर ने अपने को ठीक जमा लिया। शरीर तुमसे छुट्टी चाहता है थोड़ी देर को, इसलिए नींद की जरूरत है। बच्चा चौबीस घंटे सोएगा मां के पेट में; पूरा शरीर बन रहा है। जवान सात-आठ घंटे पर आ जाएगा। बूढ़ा तीन-चार घंटे पर रुक जाएगा, दो घंटे पर रुक जाएगा। मेरे पास बूढ़े आते हैं। कुछ दिन पहले कोई अस्सी साल के एक आदमी ने आकर कहा कि और कुछ भी हो, मुझे नींद नहीं आती; नींद की वजह से मैं परेशान हूं। पूछा, कितनी देर सोते हो? उन्होंने कहा, मुश्किल से दो-तीन घंटे ही सो पाता हूं। अब तुम बूढ़े हुए, अस्सी साल तुम्हारी उमर होने को आ रही है; अब दो-तीन घंटे जरूरत से ज्यादा नींद है। अब तुम अगर बच्चे की तरह बीस घंटे सोना चाहो, संभव नहीं है। तुम बच्चे नहीं हो। अब तुम जवान की तरह सात-आठ घंटे सोना चाहो, संभव नहीं। । लेकिन बूढ़े की तकलीफ क्या है? यह अभी भी सोच रहा है कि सात-आठ घंटे जीवन भर सोता था, अब केवल तीन घंटे सोता हूं; पांच घंटे कम हो गए, मुश्किल बात है! यह यह देख ही नहीं रहा है कि तुम उतार पर आ गए; अब जाने का वक्त आ रहा है। अब इतनी नींद की कोई जरूरत न रही। अब तुम्हारे शरीर में चीजें टूटती हैं, बनती नहीं हैं। अब तुम्हारे शरीर के सेल बाहर जा रहे हैं, निर्मित नहीं होते। अब जो भी तुम्हारे भीतर टूट जाता है वह फिर से नहीं बनता। जब बनने का काम ही बंद हो गया तो नींद की जरूरत न रही। अब तो टूटने का काम शुरू है। तुम जागे रहो रात भर तो भी कोई हर्जा नहीं है। आदत लेकिन पुरानी है कि मैं पांच-सात घंटे, आठ घंटे सोता था! और अब दो घंटे सोता हूं; बड़ा बुरा हो रहा है। न केवल तुम दूसरे का अनुसरण नहीं कर सकते हो, तुम अपने भी बनाए नियम को सदा के लिए नहीं बना सकते। जीवन रोज-रोज तौलना पड़ता है। रोज स्थिति बदल जाती है। कभी तुम स्वस्थ हो, तब तुम ज्यादा श्रम करते हो। कभी तुम बीमार हो, तब तुम ज्यादा विश्राम करते हो। तुम्हें चौबीस घंटे अपनी नब्ज पर हाथ रखे रहना पड़ेगा। तभी तुम सम्यक हो पाओगे। नब्ज पर हाथ रखे रहने की इस कला का नाम ही जागरूकता है। जैसी स्थिति हो उस स्थिति के अनुकूल तुम्हारी प्रतिसंवेदना हो, रिस्पांस हो। कोई बंधी हुई लकीर पर चलने से कभी लाभ नहीं होता; . क्योंकि लकीर तो बंधी हो सकती है, लेकिन तुम रोज बदल रहे हो। यह तो ऐसे हुआ कि एक छोटे बच्चे के लिए कपड़े बनाए थे और जिंदगी भर पहनाए। अब वह छोटा सा पैंट पहने फिर रहा है; बेहूदा लग रहा है। चल भी नहीं सकता, क्योंकि पैंट छोटा है, शरीर बड़ा है। तुम रोज कपड़े बनाओगे, रोज बदलने पड़ेंगे। बंधी लकीरों से नहीं। लकीर के फकीर मत बनना। बोध ही तुम्हारा नियंता हो। इसलिए दूसरा तो तुम्हारे लिए तय कर ही नहीं सकता, तुम खुद भी अपने लिए सदा-सदा के लिए तय नहीं कर सकते। तो मैं तुम्हें एक ही अनुशासन देता हूं; वह अनुशासन होश का है। मैं तुम्हें एक ही नियम देता हूं कि तुम जाग कर जीना। बस काफी है। जब जैसी जरूरत हो तब तुम वैसे हो जाना, ढल जाना। तुम लड़ना मत परिस्थिति से; तुम परिस्थिति के अनुसार बह जाना। बुढ़ापे में जवान होने की कोशिश मत करना; जवानी में बूढ़े होने की कोशिश मत करना। बचपन में बच्चे रहना; स्वास्थ्य जब हो तब स्वास्थ्य के अनुसार चलना। सिर्फ आदमी को छोड़ कर सभी पशु प्रतिपल अपनी संवेदना को सम्हालते हैं। अगर तुम्हारा कुत्ता भी बीमार है, खाने से इनकार कर देगा। लेकिन बीमारी में भी तुम खाए चले जाते हो। तुम्हें इतना भी बोध नहीं है जितना तुम्हारे कुत्ते को है। अगर कुत्ता बीमार अनुभव कर रहा है, फौरन जाकर घास खाकर वमन कर देगा, उलटी कर देगा। क्यों? क्योंकि जब शरीर रुग्ण है तब जरा सा भी भोजन शरीर में घातक है। जब शरीर रुग्ण है तो सारी शरीर की ऊर्जा शरीर को ठीक करने में लगनी चाहिए, भोजन के पचाने में नहीं। क्योंकि यह इमरजेंसी है, यह घटना संकटकालीन है। भोजन अभी नहीं दिया जा सकता, क्योंकि भोजन को पचाने में बड़ी शक्ति लगती है। 408|

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