Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 421
________________ धर्म की राठ ही उसकी मंजिल है भूख ही नहीं जानी। जिसने भूख नहीं जानी उसने स्वाद के ब्रह्म को नहीं जाना। क्योंकि भूख से ही स्वाद आता है। मरुस्थल में मजा है पानी पीने का। तब कंठ पर पड़ती एक-एक ठंडी बूंद ऐसी तृप्ति दे जाती है कि तुम सोच ही नहीं सकते थे कि पानी से और ऐसी तृप्ति मिल सकती है। ठीक संयोग की बात है। जब प्यास गहन हो तब पीना पानी; जब भूख गहन हो तब लेना स्वाद; और जब मन अशांत हो, अतृप्त हो, बेचैन हो, तब उतरना ध्यान में। देर लगेगी उतरने में, क्योंकि अशांति बाधा डालेगी। लेकिन उसी वक्त उतरने का मजा है; उसी वक्त उतरने की जरूरत है। और जब चित्त आनंदित ही हो तब ध्यान की झंझट में मत पड़ना। नहीं तो वह आनंद जो आया वह खो जाएगा। चित्त तो नाचना चाहता था, तुम पालथी लगा कर सिद्धासन में बैठ गए। चित्त तो बांसुरी बजाना चाहता था, तुम आंखें बंद करके राम-राम राम-राम जपने लगे। चित्त तो चाहता था कि निकल जाए प्रकृति में, खुले आकाश के साथ हो, थोड़ा वृक्षों से बतियाए, थोड़ा पक्षियों से गुनगुनाए, थोड़ा घास पर लेटे, कि नदी में तैरे, चित्त तो अभी किसी उत्सव में जाना चाहता था; तुम जबरदस्ती उसे बिठा रहे हो सिद्धासन में। नहीं, सहज होना। सहजता ही एकमात्र साधना है। और सहज का मतलब यह है : जो होना चाहता हो तुम्हारे अस्तित्व में उसे होने देना, विपरीत खींचने की कोशिश मत करना। निश्चित ही, मेरे साथ काम करना कठिन मालूम पड़ता है। मैं तुम्हारी जिम्मेवारी बढ़ाता हूं, क्योंकि पल-पल तुम्हें जागना होगा। मैं तुम्हें बंधी लकीर दे देता, तुम्हें आसानी होती। लेकिन वह तुम मुझसे न पा सकोगे। बहुत से लोग मेरे पास आकर इसीलिए दूर चले जाते हैं, क्योंकि वे आए थे कुछ अंधी लकीरें पाने; मैं जो उन्हें देना चाहता था, वह उनके सामर्थ्य के बाहर था लेना। वे आए थे अनुयायी बनने, मैं चाहता था कि वे प्रबुद्ध बनें। वे छोटे-मोटे से राजी होने को आए थे, कूड़ा-कर्कट बटोरने आए थे; मैं उन्हें जगत की सारी संपदा देना चाहता था। उनको न जंची। उनको दिखाई ही न पड़ी। उनकी आंखों ने वैसी संपदा देखी ही नहीं थी। उन्होंने सोचा, यहां तो कुछ भी नहीं है। क्योंकि उनको जो कचरा चाहिए था वह नहीं मिला। सब आदेश कचरा हैं; इसलिए मैं तुम्हें कोई आदेश नहीं देता। उपदेश और आदेश का यही तो फर्क है। आदेश • का मतलब है यह कहना कि ऐसा-ऐसा करो, सीधा-सीधा, साफ। उपदेश का अर्थ है परोक्ष; सिर्फ हवा हम पैदा करते हैं; उस हवा में तुम खोज लेना कि क्या करने योग्य है। हम तुम्हें सिर्फ झलक देते हैं; रास्ता तुम बना लेना। हम सिर्फ दिखा देते हैं; जैसे बिजली कौंध जाती है, सब साफ हो जाता है; अब तुम अपना रास्ता बना लेना। .. मैं तुम्हें आंखें देना चाहता हूं, अंधे की लकड़ी नहीं कि जिससे तुम टटोल कर और रास्ता खोज लो। मैं तुम्हें कोई नक्शा नहीं देना चाहता, क्योंकि सभी नक्शे परतंत्रताएं हैं। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम ऐसे ही चलो तो ही अच्छे रहोगे। न, मैं तो तुम्हारे अस्तित्व का एक गुण जगाना चाहता हूं कि तुम होश से चलना, कहीं भी चलना, किसी रास्ते पर चलना। कोई नक्शा तुम्हारे पास हो-हिंदू का हो, मुसलमान का, ईसाई का, जैन का, बौद्ध का-नक्शों से तुम सुलझो। मैं तो तुम्हें सिर्फ होश देना चाहता हूं। और अगर तुम्हारे पास होश है तो हर नक्शा तुम्हें मोक्ष तक पहुंचा देगा। और अगर तुम्हारे पास होश नहीं है तो सभी शास्त्र तुम्हारी गर्दनों में बंधे हुए पत्थर हैं, डुबाएंगे और तुम्हें नष्ट कर देंगे। दूसरा प्रश्न : यह तो घबड़ाने वाली बात हुई कि कोई साधक ठीक मंजिल के पास पहुंच कर भी जना सी चूक के कारण इतना पीछे फेंक दिया जा सकता है कि उसे फिर आरंभ से ही आरंभ करना पड़े। तो क्या इतना सारा श्रम रत्ती भर चूक के लिए व्यर्थ हो गया? 411

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