Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 424
________________ ताओ उपनिषद भाग ५ मैं जल्दी नहीं छोड़ सकता। इससे मेरी बड़ी आशा है। छोटा चित्रकार होता तो कह देता कि ठीक, बहुत। लेकिन इसकी संभावना इसके कृत्य से बड़ी है। इसे समझ लो ठीक से। जितनी बड़ी तुम्हारी संभावना होगी उतने ही तुम कसे जाओगे। जितनी छोटी संभावना होगी उतने जल्दी छूट जाओगे। जैसे-जैसे घड़ी करीब आती है परमात्मा के पहुंचने के पास, उतनी ही कसान बढ़ती है, उतने ही तुम ज्यादा कसे जाते हो। क्योंकि अब तुम अपनी अंतिम संभावना के निकट पहुंच रहे हो। अब सब परीक्षाएं हो जानी जरूरी हैं। अब तुम वहां पहुंच रहे हो जिसके आगे फिर और कोई जाना नहीं। अब तुम वहां पहुंच रहे हो जिसके आगे फिर और कोई विकास नहीं। अब तुम वहां पहुंच रहे हो जो चरम उत्कर्ष है, जो कैलाश का शिखर है। अब तुम्हारी सब परीक्षा हो जानी जरूरी है। अब तुम्हारा रो-रो कस लिया जाना जरूरी है। अब तुम खालिस सोना बचो। तुममें कुछ भी तंद्रा न रह जाए; तुम शुद्ध-बुद्ध बचो। तुममें कुछ भी कूड़ा-कर्कट न रह जाए। अब तुम्हें आखिरी आग में फेंक देना जरूरी है। इसलिए आखिरी मंजिल से अगर तुम जरा भी चूके तो ठीक पहले कदम पर फेंक दिए जाते हो। क्योंकि तुम बड़े संभावना के व्यक्ति हो; आखिरी तक आ गए थे। तुम्हारा होना है तो बहुमूल्य कि तुम द्वार तक किसी तरह पहुंच गए थे, जो कि कभी करोड़ों में एक को संभव हो पाता है और करोड़ों जन्मों दौड़ कर कभी संभव हो पाता है। तुम्हें वापस पहले कदम पर फेंक दिया जाए, यही उचित है। यही उचित है, इसे तुम अन्याय मत समझना। क्योंकि तुम्हारी जितनी बड़ी संभावना है उतनी ही बड़ी तुमसे अपेक्षा है। तुम थोड़े ही उन कठिनाइयों में से गुजर रहे हो जिनमें से कोई बुद्ध और लाओत्से गुजरता है। जिस दिन गुजरो उस दिन सौभाग्य समझना। तुम्हें पता ही नहीं-क्योंकि उस कथा को कोई कहेगा भी नहीं, कहने का कोई उपाय भी नहीं है कि आखिरी क्षणों में बुद्ध किस कसौटी से गुजरते हैं; कितनी बार फेंके जाते हैं; कितनी बार अपने को पहले कदम पर पाते हैं। पुनः-पुनः। यह जरूरी है। क्योंकि एक बार तुम इस आखिरी मंदिर में प्रविष्ट हो गए कुछ कचरा लेकर, तो फिर वह तुमसे कभी न छूट सकेगा। फिर कोई उपाय न रहा। इसलिए इस मंदिर का द्वार खुलता ही । • तब है जब तुम बिलकुल खालिस होकर पहुंचते हो। तुम्हें पता हो, जितना कीमती हीरा हो उतना ही जरा सी भी लकीर उसकी कीमत को करोड़ गुना नीचे गिरा देती है। जरा सी लकीर! वही लकीर साधारण हीरे में कोई देखता भी नहीं। लेकिन कोहिनूर में छोटी सी लकीर की भी कीमत है करोड़ों रुपया। उस लकीर के होने पर दाम कुछ हो जाएगा, न होने पर दाम कुछ का कुछ हो जाएगा। जरा सी लकीर। तुम कहोगे, जरा सी लकीर! लेकिन कोहिनूर से बड़ी अपेक्षा है। और जब तुम परमात्मा के द्वार पर हो तो जिस आत्मा को तुमने अब तक कंकड़-पत्थर समझा था वह कोहिनूर की स्थिति में पहुंच रही है। अब उसे आखिरी नूर उपलब्ध हो रहा है, आखिरी प्रकाश उपलब्ध हो रहा है। इस परम प्रकाश में छोटी सी भी कमी और खामी दिखाई पड़ेगी। आखिरी जौहरी के सामने जा रहा है अब तुम्हारा हीरा। यहां बचने का, धोखे का कोई भी उपाय नहीं है। और जितना बड़ा हीरा है उतने ही दूर फेंक दिया जाएगा; क्योंकि उतने ही शुद्ध होने की जरूरत और अपेक्षा है। तो पहली तो बात, इसे जरा सी चूक मत कहना। क्योंकि अगर तुमने अपने मन में अभी से यह समझ लिया कि यह जरा सी चूक है तो तुम्हारे करने की संभावना बढ़ जाती है। तुम इस चूक को कर गुजरोगे। जिस चीज को भी हम जरा सा कहते हैं उसका खतरा है। इसीलिए तो लाओत्से कहता है कि संत किसी भी चीज को छोटा नहीं मानते, छोटी से छोटी चीज को बड़ा मानते हैं। इसलिए उनको किसी बड़ी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। 414

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