Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 423
________________ धर्म की राह ही उसकी मंजिल है जरथुस्त्र जब विदा होने लगा अपने शिष्यों से तो उसने कहाः अब आखिरी संदेश, बीवेयर ऑफ जरथुस्त्र! अब आखिरी बात सुन लो, जरथुस्त्र से सावधान! शिष्यों ने कहा, यह भी कोई बात हुई? तुमसे और सावधान? जिसके लिए हमारी सारी श्रद्धा और प्रेम है उससे क्या सावधान? जरथुस्त्र ने कहा, इसीलिए कहता हूं, इसे याद रखना; नहीं तो यही तुम्हें चुकाएगा। .. गुरु के पास होना, गुरु के निकटतम होना, गुरु को जितनी श्रद्धा दे सको देना, जितना प्रेम दे सको देना, लेकिन फिर भी सावधान। क्योंकि आखिरी क्षण में गुरु भी छूट जाना है। कहीं यह मोह भारी न हो जाए, कहीं श्रद्धा मोह न बन जाए, कहीं निकटता राग न बन जाए, कहीं यह स्वाद परतंत्रता की बेड़ियां न बन जाए! क्योंकि आखिरी क्षण इसे भी छोड़ देना है। द्वार पर विदा हो जाएगा गुरु भी। यहीं तक उसकी जरूरत थी। अगर तुम गुरु के धक्के में आ गए हो तो तुम्हें लगेगा, छोटी सी चूक। अन्यथा छोटी सी चूक नहीं है, बड़ी से बड़ी चूक है। दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है कि जितने ही तुम बढ़ते हो उतना ही तुम्हारा दायित्व बढ़ता है; जितने ही तुम विकसित होते हो उतनी ही तुम्हारी जिम्मेवारी बढ़ती है और अस्तित्व तुमसे ज्यादा से ज्यादा मांगता है। तुम्हें एक छोटी कहानी कहूं। वास्तविक घटना है। बंगाल में एक बहुत बड़े कलाकार हुए अवनींद्रनाथ ठाकुर। रवींद्रनाथ के चाचा थे। उन जैसा चित्रकार भारत में इधर पीछे सौ वर्षों में नहीं हुआ। और उनका शिष्य, उनका बड़े से बड़ा शिष्य था नंदलाल। उस जैसा भी चित्रकार फिर खोजना मुश्किल है। एक दिन ऐसा हुआ कि रवींद्रनाथ बैठे हैं और अवनींद्रनाथ बैठे हैं, और नंदलाल कृष्ण की एक छबि बना कर लाया, एक चित्र बना कर लाया। रवींद्रनाथ ने अपने संस्मरणों में लिखा है, मैंने इससे प्यारा कृष्ण का चित्र कभी देखा ही नहीं; अनूठा था। और मुझे शक है कि अवनींद्रनाथ भी उसे बना सकते थे या नहीं। लेकिन मेरा तो कोई सवाल नहीं था, रवींद्रनाथ ने लिखा है, बीच में बोलने का। अवनींद्रनाथ ने चित्र देखा और बाहर फेंक दिया सड़क पर, और नंदलाल से कहा, तुझसे अच्छा तो बंगाल के पटिए बना लेते हैं। बंगाल में पटिए होते हैं, गरीब चित्रकार, जो कृष्णाष्टमी के समय कृष्ण के चित्र बना कर बेचते हैं दो-दो पैसे में। वह आखिरी दर्जे का चित्रकार है। अब उससे और नीचे क्या होता है! दो-दो पैसे में कृष्ण के चित्र बना कर बेचता है। अवनींद्रनाथ ने कहा कि तुझसे अच्छा तो बंगाल के पटिए बना लेते हैं। जा, उनसे सीख! - रवींद्रनाथ को लगा, मुझे बहुत चोट पहुंची। यह तो बहुत हद हो गई। चित्र ऐसा अदभुत था कि मैंने अवनींद्रनाथ के भी चित्र देखे हैं कृष्ण के, लेकिन इतने अदभुत नहीं। और इतना दुर्व्यवहार? नंदलाल ने पैर छुए, विदा हो गया। और तीन साल तक उसका कोई पता न चला। उसके द्वार पर छात्रावास में ताला पड़ा रहा। तीन साल बाद वह लौटा; उसे पहचानना ही मुश्किल था। वह बिलकुल पटिया ही हो गया था। क्योंकि एक पैसा पास नहीं था; गांव-गांव पटियों को खोजता रहा। क्योंकि गुरु ने कहा, जा पटियों से सीख! गांव-गांव सीखता रहा। तीन साल बाद लौटा, अवनींद्रनाथ के चरणों पर सिर रखा। उसने कहा, आपने ठीक कहा था। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैंने पूछा, यह क्या पागलपन है? अवनींद्रनाथ से कहा कि यह तो हद ज्यादती है। लेकिन अवनींद्रनाथ ने कहा कि यह मेरा श्रेष्ठतम शिष्य है, और यह मैं भी जानता हूं कि मैं भी शायद उस चित्र को नहीं बना सकता था। इससे मुझे बड़ी अपेक्षाएं हैं। इसलिए इसे सस्ते में नहीं छोड़ा जा सकता। यह कोई साधारण चित्रकार होता तो मैं प्रशंसा करके इसे विदा कर देता। लेकिन मेरी प्रशंसा का तो अर्थ होगा अंत, बात खतम हो गई। इसे अभी और खींचा जा सकता है। अभी इसे और उठाया जा सकता है। अभी इसकी संभावनाएं और शेष थीं। इसे 413

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