Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 415
________________ धर्म की राह ही उसकी मंजिल हैं 405 मुझे मूसा जैसा नहीं बनाया । इसलिए मूसा जैसा होने का सवाल ही नहीं है। वह मुझसे पूछेगा, कहां गंवाए दिन ? कहां गंवाईं रातें ? हिलेल जैसे क्यों नहीं हुए? हिलेल उसका खुद का नाम था । इसलिए मैं मुस्कुरा रहा हूं कि यह तो बड़ा मजा रहा। हम जिंदगी भर मूसा होने की कोशिश करते रहे; आखिर में परीक्षा हिलेल की होगी। वह अपने शिष्यों को सूचन दे रहा था। उसने कहा, याद रखना, तुमसे भी परमात्मा यह न पूछेगा कि तुम हिलेल जैसे क्यों नहीं हो, जब मुझसे ही नहीं पूछेगा कि मूसा जैसे नहीं । तुमसे भी पूछेगा कि तुम जैसे तुम क्यों नहीं हो। उत्तरदायित्व तुम्हारा है, आत्यंतिक रूप से तुम्हारा है। तब जटिल हो जाती है बात थोड़ी । जटिल इसलिए हो जाती है कि तुम कदम भी नहीं उठाना चाहते, और मंजिल घर आ जाए ऐसा चाहते हो। अगर तुम कदम उठाने को तैयार हो तो जरा भी जटिल नहीं, बिलकुल सरल है। तुम्हें अपना ही मध्य खोजना होगा । मेरा मध्य मेरा मध्य है; बुद्ध का मध्य बुद्ध का मध्य है। ऐसा समझो कि रस्सी लगी है, दो खाइयों के बीच रस्सी बंधी है, और रस्सी पर से तुम्हें गुजरना पड़ता है। हर आदमी का मध्य अलग-अलग होगा। क्योंकि हर आदमी का वजन अलग-अलग है। अगर एक मोटा आदमी चलेगा उस रस्सी पर तो उसे अपने मध्य को साधना होगा - अपने वजन के अनुसार । एक दुबला आदमी चलेगा तो उसे अपना मध्य साधन होगा - अपने वजन के अनुसार । तुम दूसरे को देख कर मध्य मत साधना, अन्यथा गिरोगे। क्योंकि तुम्हें अपने वजन का ध्यान रखना है। अपने को पहचानो। अपनी अतियों को देखो। क्योंकि जो दूसरे के लिए अति है, वह तुम्हारे लिए अति हो ही नहीं। जो दूसरे के लिए समस्या है, हो सकता है वह तुम्हारे लिए समस्या हो ही नहीं। जिएफ के पास जब भी कोई शिष्य जाता था तो गुरजिएफ कहता था, तू अपनी सबसे बड़ी कमजोरी खोज कर मुझे बता, क्योंकि उसी पर सब निर्भर होगा। सकता है जैसे समझो, एक आदमी कामी है, कामवासना से भरा हुआ है; और एक आदमी लोभी है। अब यह समझने जैसी बात है कि लोभी अक्सर कामवासना पर आसानी से विजय पा लेता है, बहुत आसानी से । लोभी के लिए कामवासना बहुत बड़ी कठिनाई नहीं है, क्योंकि उसकी सारी ऊर्जा लोभ में लग जाती है। इसलिए लोभी को न पत्नी की फिक्र है, न बच्चों की फिक्र है; लोभी को तो सिर्फ तिजोरी की फिक्र है। पत्नी चली जाए तो चिंता नहीं है, बच्चे न बचें तो चिंता नहीं है, घर-द्वार रहे न रहे, लेकिन तिजोरी बचे । चौबीस घंटे लोभी अपने लोभ में लगा रहता है। इसलिए अक्सर तुम पाओगे कि लोभी समाजों में कामवासना इतनी क्षीण हो जाती है कि बच्चे गोद लेना पड़ते हैं । मारवाड़ी अक्सर बच्चों को गोद लेंगे। लोभ खास गहराई है। तो कामवासना क्षीण हो जाती है। क्योंकि ऊर्जा तो उतनी ही है; उस ऊर्जा को चाहे लोभ की तरफ लगा दो, चाहे काम की तरफ लगा दो । अब अगर कोई लोभी ब्रह्मचर्य की बात सुने तो उसे बिलकुल सरल है, उसे कोई कठिनाई ही नहीं है। वह कहेगा, हम पहले से हैं ही। और ध्यान रखना, कृपण को ब्रह्मचर्य जंचता भी है, क्योंकि ब्रह्मचर्य भी अपनी ऊर्जा को रोकने की कृपणता है। कृपण वैसे ही जानता है कैसे चीजों को रोकना, धन को कैसे रोकना । उसे वीर्य की ऊर्जा भी धन जैसी ही लगती है। कहीं खतम न हो जाए, कहीं चुक न जाए, कहीं नष्ट न हो जाए; रोक लो, बचा लो। चिकित्सक जानते हैं कि कृपण आदमी हर चीज को रोकता है। कृपण कब्जियत से भर जाता है; वह मल-मूत्र तक को भी छोड़ता नहीं। यह बड़ी हैरानी का अनुसंधान है कि मनोवैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि जो आदमी भी कब्जियत का परेशान हो, उसमें नब्बे मौकों पर वह लोभ से पीड़ित आदमी होगा। लोभी की वृत्ति पकड़ने की हो जाती है। यह सवाल ही नहीं कि क्या पकड़ना है । छोड़ नहीं सकता; मल को भी नहीं छोड़ सकता। शरीर उसको भी भीतर जकड़े रहता है। उसके पूरे शरीर की संरचना पकड़ने की हो जाती है। वह वीर्य को भी पकड़ लेता है। वह ब्रह्मचर्य को आसानी से उपलब्ध हो सकता है।

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