Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 399
________________ वे वही सीनवते हैं जो अनसीनवा है इसलिए अगर तुम सच में ही प्रेम करते हो तो स्वतंत्रता देना। नहीं तो जिसको तुम प्रेम करोगे वही तुमसे दूर जाएगा। तुम्हारे पास अगर सच में ही कोई चीज हो तो तुम उसे दे देना, ताकि कोई तुमसे उसे छीन न सके। तब तुम पहली दफा उसके धनी, मालिक हो जाओगे। लाओत्से कहता था कि जब तक तुम कुछ देते नहीं तब तक तुम उसके मालिक नहीं हो। तुम्हारी पकड़ ही बताती है कि तुम चोर हो। नहीं तो पकड़ोगे क्यों? जो अपनी ही है उसको पकड़ने की क्या जरूरत? देकर ही पहली दफे तुम्हारी मालकियत पता चलती है। ये बड़ी उलटी बातें लगती हैं बुद्धि को, लेकिन तुम्हारा हृदय समझ सकता है। और तुम्हारे जीवन के अनुभव में भी इसकी छाप जगह-जगह है। अगर तुम थोड़ा विमर्श करो, विचार करो, निरीक्षण करो, तुम जीवन में भी पाओगे: जिसको भी तुमने पकड़ रखना चाहा वह तुमसे दूर जा चुका है। बुद्धि कहती है कि जरा जोर से पकड़ना था; इसलिए दूर चला गया। अगर ठीक से कारागृह बनाया होता और कोई भी रंध्र-द्वार न छोड़ा होता बाहर निकलने का, तो कैसे जाता? और अगर तुमने और जोर से पकड़ा होता तो वह और जल्दी चला गया होता। क्योंकि कारागृह में कौन रहना चाहता है? जिब्रान ने कहा है, अपने बच्चों को प्रेम देना, लेकिन अपने सिद्धांत नहीं; प्रेम देना, लेकिन अपना अनुभव नहीं; प्रेम देना, लेकिन बांधना नहीं, मुक्त करना। बच्चे तुमसे आते हैं, लेकिन तुम्हारे नहीं हैं। हैं तो वे भी विराट के। इसलिए तुम कौन हो कि उनके ऊपर आचरण का, चरित्र का ढांचा बिठाओ? तुम कौन हो उन्हें कारागृह में डालने वाले? और जितना बड़ा तुम कारागृह बनाओगे, उतने ही जल्दी वे छूट कर बाहर हो जाएंगे। और उचित है कि वे बाहर हो जाएं; नहीं तो वे मर जाएंगे। यह उनकी जीवन-रक्षा के लिए जरूरी है कि वे हट जाएं। तुमने कभी गौर किया? जीवन में तुमने जो-जो चीज साधनी चाही वही टूट गई। फिर भी तुम जागते नहीं। क्योंकि बुद्धि का गेंडा एक ही बात कहे चला जाता है, वह कहता है, और ठीक से साधनी थी। जो-जो चीज तुमने बचानी चाही वही-वही छूट गई। जिस-जिस को तुमने सदा के लिए सम्हालना चाहा था, वह सदा के लिए खो गई। फिर भी तुम जागते नहीं। __ और अगर तुम बुद्धि की सुनते जाओगे तो वह तुम्हें जागने न देगी। क्योंकि उसके पास एक निश्चित तर्क है। | . उससे विपरीत उसे समझ में नहीं आता। और जीवन एकांगी नहीं है। जीवन अनेकांत है। जीवन बहुआयामी है। लाओत्से वही बहुआयाम प्रकट कर रहा है। वह कह रहा है कि विरोध नहीं है यहां। यहां जीवन का सीधा सूत्र समझ लो। . 'जो कर्म करता है, वह बिगाड़ देता है। जो पकड़ता है, उसकी पकड़ से चीज फिसल जाती है। क्योंकि संत कर्म नहीं करते, इसलिए वे बिगाड़ते भी नहीं हैं। क्योंकि वे पकड़ते नहीं हैं, इसलिए वे छूटने भी नहीं देते।' संत की पकड़ से तुम न छूट पाओगे। तुम लाख उपाय करो, वहां छूटने का उपाय ही नहीं है। क्योंकि पहले स्थान में वहां पकड़ ही नहीं है। तुम भागोगे कहां? तुम जाओगे कहां? संत वही है जिसके विपरीत जाने का तुम्हारे पास उपाय ही न हो। क्योंकि वह कोई सीमा ही नहीं बनाता। वह कहता ही नहीं कि इस सीमा के बाहर मत जाना। वह तुम्हारे आस-पास कोई लक्ष्मण-रेखा नहीं खींचता कि इसके बाहर मत निकलना। और जो भी लक्ष्मण-रेखा खींचता हो, समझ लेना, मित्र नहीं है, शत्रु है। क्योंकि अंततः संत तुम्हें स्वतंत्र करना चाहेगा। तुम्हारी स्वतंत्रता ही परम लक्ष्य है। तो वह तुम्हें इस तरह का प्रेम देगा जिसमें पकड़ न हो। तुम दूर जाना चाहोगे तो तुम्हें साथ देगा कि जाओ। तुम्हें पूरा सहयोग देगा दूर जाने में भी। और तब तुम उससे दूर न जा सकोगे। कैसे जाओगे दूर? कहां जाओगे? ऐसी कोई भी दूरी नहीं है, जहां तुम उसे साथ न पाओगे। क्योंकि वह दूर जाने में तुम्हें साथ देगा। 389

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