Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 351
________________ स्वादहीन का स्वाद लो फूल वृक्ष का ओवरफ्लो है। वहां तक ऊर्जा आ गई है और अब आगे जाने का कोई उपाय नहीं है। आखिरी क्षण आ गया। शिखर आ गया। वहीं पंखुरियों में ऊर्जा बिखर जाती है। वहीं से सुगंध सारे लोक में फैल जाती है। कमजोर वृक्ष जिसमें ऊर्जा न हो, उसमें फूल न खिल सकेगा। हां, यह हो सकता है कि तुम बाजार से एक फूल खरीद लाओ और वृक्ष पर लटका दो। पर उस फूल से वृक्ष का कोई लेना-देना नहीं। ऐसे ही आबा-बाबाओं के पास जो ऊर्जा उठती है, कुंडलिनी जगती है, वह ऊपर से थोपे गए फूल हैं। तुम्हारी ऊर्जा तभी जगेगी जब इस संसार में तुम पूरे निष्क्रिय हो जाओगे; यहां तुम रत्ती भर न गंवाओगे। यहां गंवाने योग्य है ही नहीं। यहां कुछ पाने योग्य नहीं है। तुम किस खरीददारी में लगे हो? तुम सिर्फ खो रहे हो। यहां सिर्फ मरुस्थल है जो तुम्हारी ऊर्जा को पी जाएगा। सब छिद्र रोक दो। बंद करो सब छिद्र, कहता लाओत्से। बंद करो सब द्वार, ताकि होती जाए संगठित ऊर्जा। ऊर्जा का संगठन और ऊर्जा की बढ़ती हुई मात्रा एक जगह जाकर गुणात्मक परिवर्तन हो जाती है। क्वांटिटेटिव चेंज एक जगह जाकर क्वालिटेटिव चेंज हो जाता है। मात्रा की एक सीमा है, जहां गुणात्मक रूप बदल जाता है। जैसे तुम पानी को गरम करते हो तो निन्यानबे डिग्री तक तो पानी ही रहता है; सौ डिग्री पर भाप हो जाता है। क्या हो रहा है? सिर्फ एक डिग्री गरमी और बढ़ने से कौन सी क्रांति घट जाती है? एक डिग्री का और गरम होना केवल मात्रा का भेद है, क्वांटिटी का भेद है। निन्यानबे डिग्री गरमी थी, अब सौ डिग्री गरमी है। लेकिन गुणात्मक रूपांतरण हो गया; क्वालिटी बदल गई। पानी का गुण और; पानी बहता नीचे की तरफ। भाप का गुण और; भाप उठती ऊपर की तरफ। पानी जाता गड्ढे की तरफ; भाप जाती आकाश की तरफ। पानी अधोगामी है, भाप ऊर्ध्वगामी है। सारा गुण बदल गया। पानी दिखाई पड़ता है; भाप थोड़ी ही देर में अदृश्य हो जाती है, दिखाई नहीं पड़ती। मात्रा को नीचे गिराओ-शून्य डिग्री से कहीं जाकर पानी बर्फ हो जाता है। तब फिर गुणात्मक परिवर्तन हो गया। तुमने सिर्फ गरमी कम की। फिर गुण बदल गया। पानी बहता था; बर्फ जमा है। पानी में तरलता थी, बहाव था; बर्फ पत्थर की तरह है। उसमें कोई तरलता नहीं, कोई बहाव नहीं। पानी को फेंक कर तुम किसी का सिर न खोल सकते थे; बर्फ को फेंक कर तुम किसी की जान ले सकते हो। बर्फ ठहर गया, जड़ हो गया; गत्यात्मकता खो गई। फर्क क्या है? सिर्फ मात्रा का फर्क है। सारे जगत में जितने भी रूपांतरण दिखाई पड़ते हैं, सभी मात्रा के रूपांतरण हैं। तुम्हारी ऊर्जा जब एक मात्रा पर आती है-एक सौ डिग्री है तुम्हारी ऊर्जा का भी-वहीं से तत्क्षण तुम दूसरे लोक में प्रवेश कर जाते हो; भाप बन जाते हो। हमने जगत को तीन हिस्सों में तोड़ा हुआ है। बीच में संसार है मनुष्य का, मनुष्य की चेतना का; यह पानी जैसा है-तरल। ऊपर दिव्य लोक है; यह भाप जैसा है-अदृश्य, ऊर्ध्वगामी। नीचे मनुष्य से नीचे की योनियां हैं; वृक्ष हैं, पत्थर हैं, पहाड़ हैं। ये बर्फ जैसे हैं-जमे हुए। ये चेतना के तीन रूप हैं। और इनका सारा भेद ऊर्जा की मात्रा का भेद है। आलस्य से तो तुम बर्फ बन जाओगे। निष्क्रियता से तुम भाप बनोगे। दोनों ही स्थिति में पानी तुम न रहोगे। इसलिए एक तरह की समानता है। लेकिन वह समानता बड़ी ऊपर है; भीतर बड़ा भेद है। संत भी आलसी मालूम होने लगता है; कुछ करता नहीं दिखाई पड़ता। रमण महर्षि क्या कर रहे थे अरुणाचल में? इसलिए बहुतों को गांधी ज्यादा संत मालूम पड़ते हैं, बजाय रमण के। रमण बैठे हैं। तुमने रमण की तस्वीर देखी? सदा अपने बिस्तर पर ही बैठे हैं। बैठे भी कम हैं, लेटे ही हैं। चार-छह तकिए लगा रखे हैं। अब इनको संत कहिएगा? उठो, कुछ करो। किसी की सेवा करो। संसार को जरूरत है; कुछ काम करो। मुल्क गुलाम है; आजाद करो। लोग गरीब हैं; अमीर करो। यहां बैठे क्या कर रहे हो? 341

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