Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 374
________________ ताओ उपनिषद भाग ५ 364 तो पहली तो भूल करते हो कि टालते हो। फिर दूसरी भूल करते हो कि अधैर्यपूर्वक लड़ते हो । अब तुम्हें हंसी आएगी; तुम कहोगे, योद्धा पागल था। लेकिन तुम अपनी तरफ सोचो। कहानी को अपने जीवन में जरा खोजने की कोशिश करो। मेरे पास कोई आता है, वह कहता है कि पान खाना नहीं छूटता। बीस साल से लड़ रहे हैं। अब यह चूहा से कोई बड़ी बात हुई पान खाना? चूहा फिर भी बड़ा है। कोई कहता है, सिगरेट नहीं छूटती । तुम बात क्या कर रहे हो ? तुम्हारे भीतर आत्मा है या नहीं ? तुम किस भांति की बिल्ली हो कि चूहे को देख कर भाग रहे हो और विचार कर रहे हो कि क्या करें क्या न करें? सिगरेट पीने जैसी बात, और बीस साल हो गए और तुमसे छूटती नहीं! और तुम कई बार छोड़ चुके, और फिर-फिर हार गए और फिर-फिर शुरू कर दी ! तुम हो कौन ? कुछ भी नहीं हो मालूम होता है। तुम्हारे पास ध्यान की कोई भी ऊर्जा नहीं है। तुम्हारे पास आत्मविश्वास नहीं है। अन्यथा सिगरेट पीने से लड़ना पड़े ? ऐसा हुआ कि आज से कोई चालीस साल पहले उत्तरी ध्रुव पर मनुष्य पहली दफा पहुंचा था। और जो यात्री उत्तरी ध्रुव पर होकर लौट कर आए थे उन्होंने जब अपनी कहानी कही तो अखबारों में- सारे जगत के अखबारों में—बड़ी सुर्खियों से छपी। और उनकी कहानी बड़ी करुणा की भी थी। क्योंकि उनका भोजन चुक गया और उन्हें मछलियां मार कर या भालू मार कर किसी तरह अपना जीवन चलाना पड़ा। पर सबसे बड़ी हैरानी की बात यह थी कि जो यात्री दल का प्रधान था उसने कहा, हमें भोजन के चुकने से उतनी तकलीफ न हुई; लोग भूखे रहने को राजी थे, लोग पानी पीकर रह लेते थे; लेकिन सिगरेट चुक गई तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए। लोग जहाज की रस्सियां काट-काट कर पीने लगे। और उनको लाख समझाया कि ये रस्सियां अगर कट गईं तो हम पहुंचेंगे कैसे वापस ! इन्हीं रस्सियों पर सारा पाल टिका है! लेकिन कोई सुनने को राजी नहीं पहुंचने की उतनी फिक्र नहीं; मर जाएं यहीं, इसकी भी चिंता नहीं; लेकिन लोग कहते कि जब तलफ लगती है, तो फिर हम रुक नहीं सकते। और उन पर पहरा देना मुश्किल था। क्योंकि करीब-करीब नब्बे प्रतिशत साथी उस दल के सिगरेट पीने वाले थे । उन पर पहरा कौन दे ? रात को रस्सियां कट जाएं। कप्तान इसलिए परेशान था कि अगर यह चला और लोग रस्सियां ही पी गए तो हमारे पहुंचने का कोई उपाय नहीं । एक वैज्ञानिक इसको अखबार में पढ़ रहा था। वह भी सिगरेट का चेन स्मोकर था। उसके हाथ में उस वक्त भी सिगरेट थी जब वह पढ़ रहा था । उसे खयाल आया कि यह तो बड़ी बेहूदी बात है । अगर मैं भी उस यात्री - दल का हिस्सा होता तो मैंने भी क्या रस्सियां पी होतीं - गंदी रस्सियां ? उनको मैं धुएं की तरह पी गया होता? हाथ में सिगरेट थी, उसने सिगरेट की तरफ देखा, अपनी तरफ देखा, सिगरेट उसने ऐश-ट्रे में रख दी, वैसी की वैसी अधजली, और उसने कहा, अब मैं उस दिन की प्रतीक्षा करूंगा जब मुझे इसे फिर उठाना पड़े। उस दिन मैं समझंगा कि मुझमें कोई आत्मा नहीं है। सिगरेट बड़ी है, आत्मा छोटी है। बीड़ी बड़ी है, ब्रह्म छोटा । फिर तीस साल गुजर गए और वह सिगरेट को हमेशा अपनी ऐश-ट्रे पर वैसी ही आधी की आधी रखे रहा—उस क्षण की प्रतीक्षा में जब उसे फिर सिगरेट उठानी पड़े। वह क्षण नहीं आया। बस इतना ही चाहिए। आत्मभाव चाहिए। जरा सा होश। जिन समस्याओं से तुम लड़ रहे हो वे तुम्हारी छायाएं हैं। उनसे लड़ोगे तो हारोगे। क्योंकि लड़ने में तुमने नासमझी दिखला दी। तुम लड़े, इसका मतलब ही यह है कि तुम्हें यह पता ही नहीं है कि तुम अपनी छाया से लड़ रहे हो । आदत तुम्हारी है। समस्या तुम्हारी है। तुम इतने नीचे उतर रहे हो कि उससे लड़ने जाओगे ! समस्याएं बोध से मिटती हैं, संघर्ष से नहीं, कसम खाने से नहीं, व्रत लेने से नहीं । व्रत तो कमजोर लेते हैं। कसमें कमजोर खाते हैं। क्योंकि कसम का मतलब ही यह है कि तुम अपने को बांध रहे हो, ताकि भविष्य में – तुम्हें भरोसा नहीं है अपना । तो तुम कह रहे हो कि मैं ब्रह्मचर्य की कसम लेता हूं। तुम्हें

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