Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 334
________________ ताओ उपनिषद भाग ५ जीवन के सारे गणित को तोड़ देता है। गणित तो साफ है कि जो नहीं मिल रहा हो, दौड़ो! खोजो! यह गणित से बिलकुल उलटी बात है-रुको, ठहरो, कहीं मत जाओ। घर में ही छिपा है इसलिए खजाना। तुम जहां खड़े हो वहीं खड़ा है। तुम जहां हो वहीं बैठा है। तुम जो हो वही है। रहस्य इसलिए भी! एक तो तर्कनिष्ठ वक्तव्य होता है जिसमें सब रेखाएं साफ होती हैं, जिसकी परिभाषा सुनिश्चित होती है। एक काव्य का वक्तव्य होता है जिसकी सब रेखाएं धूमिल होती हैं; परिभाषा सुस्पष्ट नहीं होती। लगता है कुछ कहा जा रहा है, लेकिन जितना ही तुम गौर करो, विचार करो, उतनी ही पकड़ छूटती जाती है। संत अगस्तीन ने कहा है, लोग मुझसे पूछते हैं, परमात्मा क्या है? और मेरी दशा वैसी हो जाती है जैसे लोग कभी पूछ लेते हैं कि समय क्या है? व्हाट इज़ टाइम? जब मुझसे कोई नहीं पूछता, तब मैं भलीभांति जानता हूं कि समय क्या है। जैसे ही किसी ने पूछा कि मैं मुश्किल में पड़ जाता हूं। तुम भी जानते हो कि समय क्या है। कहते हो, सुबह छह बजे उठना है। क्या मतलब है? कहते हो कि आठ बजे यहां पहुंचे। क्या मतलब है तुम्हारा? कहते हो, फलां आदमी कल सांझ मर गया। क्या कह रहे हो? कहते हो, तीस साल गुजर गए जिंदगी के। क्या है तुम्हारा अर्थ? समय का तुम चौबीस घंटे उपयोग कर रहे हो। लेकिन अगर कोई पूछ ले कि समय है क्या? तो अब तक कोई भी जवाब नहीं दे पाया है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक सिर फोड़ते रहे हैं कि किसी तरह समय की कोई परिभाषा बना लें। कोई परिभाषा बनती नहीं। समय में जीते हो, समय में उठते-बैठते हो। महावीर ने तो यह देख कर कि समय की परिभाषा नहीं की जा सकती और आत्मा की भी परिभाषा नहीं की जा सकती, आत्मा का नाम ही समय रख दिया। इसलिए जैन ध्यान को सामायिक कहते हैं। सामायिक का अर्थ है, समय में प्रवेश, आत्मा में प्रवेश। महावीर ने तो कहा कि स्वभाव ही आत्मा का समय जैसा है। तुम जानते नहीं क्या है, फिर भी जीते तो बड़े मजे से हो। समय का उपयोग भी करते हो। जवान होते हो, बूढ़े होते हो; आते हो, जाते हो; समय का ठीक-ठीक उपयोग करते हो। लेकिन कोई परिभाषा नहीं बनती। जैसे ही परिभाषा बांधते हो वैसे ही, पारे पर जैसे कोई मुट्ठी बांधे, समय बिखर जाता है। तर्क की परिभाषाएं सुस्पष्ट रेखाएं हैं; विभाजन साफ है। रहस्य का अर्थ है कि परम सत्य गणित और तर्क जैसा नहीं, काव्यात्मक है, पोएटिक है, धूमिल है। पकी दुपहरी की तरह नहीं, जब सब रोशनी में साफ-साफ होता है, हर चीज अलग-अलग होती है। सुबह की भांति है, धुंध में दबी कुंआरी सुबह की भांति है, जहां कुछ भी साफ नहीं होता। शीतकाल की सुबह, सब धुआं-धुआं, सब रेखाएं धूमिल, एक चीज दूसरे में मिलती, खोती, लीन। सब इकट्ठा-इकट्ठा; खंड-खंड कुछ भी नहीं, सब अखंड। दिन की तरह नहीं है वह रहस्य, अंधेरी रात की तरह है। अमावस की रात। बस-चांद भी नहीं-तारों की टिमटिमाहट। बस इतनी ही रोशनी कि अंधेरा साफ हो, मिटे न। इतनी ही रोशनी कि अंधेरे का पता चले, और अंधेरा गहन होकर मालूम पड़े। बुद्ध को पूर्णिमा की रात ज्ञान हुआ। पता नहीं, ऐसा हुआ या केवल काव्य है यह। पूर्णिमा की रात चांद तो होता है, लेकिन चांद की बड़ी से बड़ी खूबी यही है कि वह चीजों को धूमिल करता है। पूरे चांद की रात रोशनी तो होती है, लेकिन रेखाएं साफ नहीं होतीं। रोशनी का एक सागर होता है, लेकिन बड़ा धुआं-धुआं, रहस्यपूर्ण। चांद चीजों को एक रहस्य दे देता है। इसलिए तो कवि प्रेम करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं। चांद चीजों को ऐसा सौंदर्य दे देता है जो दिन की दुपहरी में छिन जाता है। वही वृक्ष रात देखो, वही फूल रात चांद की रोशनी में देखो; वही चेहरा रात चांद की रोशनी में देखो, वही चेहरा दिन की दुपहरी में। बड़ा जमीन-आसमान का अंतर है। चांद बहुत कुछ छिपा लेता है, बहुत कुछ प्रकट करता है। उसका संयोजन अलग है। 324

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