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ग्रंथ और ग्रंथकार
समझे जाते थे। इन्होंने अनेकांतवादका प्रतिपादन करनेके लिये नयचक्र आदि ग्रन्थोंकी रचना की। जिनभद्रगणि देतान्दर आगमोंक मर्मन पण्डित थे, इन्होंने विशेपावश्यकभाष्य आदि शास्त्रोंकी रचना की। जिनभद्रने प्रार: सिद्धन दिवाकरकी शैलीका ही अनुसरण किया। इन विद्वानोंके पश्चात् ईसाकी आठवीं-नौवीं शतानीने अकलंक और हरिनद्रका नाम विशेष रूपसे उल्लेखनीय है । इन विद्वानोंने स्याद्वादका नाना प्रकारने ऊहापोहात्नक मूम्मातिसूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन कर स्याद्वादको मांगोपांग परिपूर्ण बनाया।' इस समय प्रतिपक्षी लोग अनेकांतवादपर अनेक प्रहार करने करने लगे थे। कोई लोग अनेकांतको संशय कहते थे, कोई केवल छलका रूपान्तर कहते थे, और कोई इसमें विरोध, अनवस्था आदि दोपोंका प्रतिपादन इसका खंडन करते थे। ऐसे समयमें अकलंक और हरिभद्रने तत्त्वार्थराजवार्तिक, सिद्धविनिश्चय, अनेकांतजयपताका, शास्त्रवातीसमुच्चय आदि ग्रन्थोंका निर्माण कर योग्यतापूर्वक उक्त दोपोंका निवारण किया, और अनेकांतकी जयपताका फहराई। ईसाकी नौवों शताब्दीमें विद्यानन्द और माणक्यनन्दि सुविख्यात दिगम्बर विद्वान् हो गये हैं। विद्यानन्द अपने समयके बड़े भारी नैयायिक थे। इन्होंने कुमारिल आदि वैदिक विद्वानोंके जैनदर्शनपर होनेवाले आक्षेपोंका वड़ो योग्यतासे परिहार किया है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवातिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा आदि ग्रन्थोंको लिखकर अनेक प्रकारसे ताकिक शैलीद्वारा स्याद्वादका प्रतिपादन और समर्थन किया है। माणिक्यनन्दिने सर्वप्रयन जैन न्यायको परीक्षामुखके सूत्रोंमें गूंथ अपनी अलौकिक प्रतिभाका परिचय देकर जैनन्यायको समुन्नत बनाया है । ईसाकी दसवीं-ग्यारहवी शताब्दीमें होनेवाले प्रभाचन्द्र और अभयदेव महान तार्किक विद्वान थे। इन विद्वानोंने सन्मतितर्कटीका (वादमहार्णव), प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्रोदय आदि जैनन्यायके ग्रन्योंकी रचना कर जैनदर्शनको महान सेवा की है। इन विद्वानोंने सौत्रांतिक, वैभापिक, विज्ञानवाद, शून्यवाद, ब्रह्माद्वैत, शब्दादैत आदि वादोंका समन्वय करके स्याद्वादका नैयायिक पद्धतिसे प्रतिपादन किया है। इनके पश्चात् ईसाकी वारहवीं शताब्दीमें वादिदेवसूरि और कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रका नाम आता है । वादिदेव वादशक्तिमें असाधारण माने जाते थे । वादिदेवने स्याद्वादका स्पष्ट विवेचन करने के लिए प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, स्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थ लिखे हैं। हेमचन्द्र अपने समयके असाधारण पुरुप थे। इन्होंने अन्ययोगव्यवच्छेदिका, अयोगव्यवच्छेदिका, प्रमाणमीमांसा आदि ग्रन्थ लिखकर अपूर्व ढंगसे स्याद्वादकी सिद्धिकर जैनदर्शनके सिद्धातोंको पल्लवित किया है। ईसवी सनकी सतरहवीं-अठारहवीं शताव्दीमें उपाध्याय यशोविजय और पंडित विमलदास जैनदर्शनके अन्तिम विद्वान हो गये हैं। उपाध्याय यशोविजयजी जैन परम्परामे लोकोत्तर प्रतिभाके धारक असाधारण विद्वान थे। इन्होंने योग, साहित्य, प्राचीन न्याय आदिका गंभीर पांडित्य प्राप्त करनेके साथ नव्य न्यायका भी पारायण किया था। स्याद्वादके द्वारा अभूतपूर्व ढंगसे सम्पूर्ण दर्शनोंका समन्वय करके स्याद्वादको 'सार्वतांत्रिक' सिद्ध करना, यह उपाध्यायजीकी ही प्रतिभाका सूचक है । यशोविजयजीने शास्त्रवार्तासमुच्चयकी स्याद्वादकल्पलताटीका, नयोपदेश, नयरहस्य, नयप्रदीप, न्यायखंडखाद्य, न्यायालोक, अष्टसहस्रीटीका आदि अनेक ग्रंथोंकी रचना की है। पं. विमलदास दिगम्बर विद्वान थे। इन्होंने नव्य न्यायको अनुकरण करनेवाली भापागे सप्तभंगीतरंगिणी नामक स्वतंत्र ग्रंथकी संक्षिप्त और सरल भापामें रचना करके एक महान क्षतिकी पूर्ति की है।
स्थाद्वादका जैनेतर साहित्यमें स्थान-किसी वस्तुको भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे विविध रूपमें दर्शन करनेके स्याहादसे मिलते जलते सिद्धांत जैन साहित्यके अतिरिक अन्यत्र भी उपलब्ध होते हैं। ऋग्वेदमें कहा
१. देखिये तत्त्वार्थराजवातिकमें 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्रकी व्याख्या, तथा अनेकांतजयपताका ।
२. तुलनीय-ब्रुवाणा भिन्नभिन्नार्थान्नयभेदव्यपेक्षया।
प्रतिक्षिपेयु! वेदाः स्याद्वाद सार्वतांत्रिकम् ॥ ५१ ।। अध्यात्मसार ।