Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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इस प्रकार का 'ता' का प्रयोग किसी भी अंग उपांगों के सूत्रों में उपलब्ध नहीं है।
चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति के प्रत्येक प्रश्नसूत्र के प्रारम्भ में 'भंते !' का और उत्तरसूत्र के प्रारम्भ में 'गोयमा' का प्रयोग नहीं है। जबकि अन्य अंग-उपांगों के सूत्रों में भंते ! और गोयमा! का प्रयोग प्रायः सर्वत्र है, अत: यह मान्यता निर्विवाद है कि यह कृति पूर्णरूप से स्वतंत्र संकलित कृति है। ग्रन्थ एक, उत्थानिकाएँ दो
ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति की एक उत्थनिका चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में दी हुई गाथाओं की है और एक उत्थनिका गद्य सूत्रों की है।
इन उत्थानिकाओं का प्रयोग विभिन्न प्रतियों के सम्पादकों ने विभिन्न रूपों में किया है - १. किसी ने दोनों उत्थानिकाएँ दी हैं। २. किसी ने एक गध-सूत्रों की उत्थानिका दी है। ३. किसी ने पद्य-गाथाओं की उत्थानिका दी है।
इसी प्रकार प्रशस्ति गाथायें चन्द्रप्रज्ञप्ति के अंत में और सूर्यप्रज्ञप्ति के अंत में भी दी है। जबकि ये गाथायें ज्योतिष -राज-प्रज्ञप्ति के अंत में दी गई थीं।
संभव है ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति को जब दो उपांगो के रूप में विभाजित किया गया होगा, उस समय दोनों उपांगों के अंत में समान प्रशस्ति गाथायें दे दी गई हैं। ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति की संकलन-शैली
चिर अतीत में ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति का संकलन किस रूप में रहा होगा? ग्रह तो आगम-साहित्य के इतिहासविशेषज्ञों का विषय है किंतु वर्तमान में उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ति के प्ररम्भ में दी गई विषय-निर्देशक समान गाथाओं में प्रथम प्राभृत का प्रमुख विषय 'सूर्यमण्डलों में सूर्य की गति का गणित' सूचित किया गया है, किन्तु दोनों उपांगों का प्रथम सूत्र मुहूर्तों की हानि-वृद्धि का है।
___ सूर्य संबंधी गणित और चन्द्र संबंधी गणित के सभी सूत्र यत्र-तत्र विकीर्ण हैं। यह नक्षत्र और ताराओं के सूत्रों का भी व्यवस्थित क्रम नहीं है। अत: आगमों के विशेषज्ञ सम्पादक श्रमण या सद्गृहस्थ इन उपांगों को आधुनिक सम्पादन शैली से सम्पादित करें तो गणित की आशातीत वृद्धि हो सकती है।
प्रथम प्राभृत के पाँचवें प्राभृत-प्राभृत में दो सूत्र हैं। सोलहवें सूत्र में सूर्य की गति के संबंध में अन्य मान्यताओं की पाँच प्रतिपत्तियाँ हैं और सत्रहवें में स्वमान्यता का प्ररूपण है।
इस प्रकार अन्य मान्यताओं का और स्वमान्यता का दो विभिन्न सूत्रों में निरूपण अन्यत्र नहीं है। संकलनकाल
गणधर अंग आगमों को सूत्रागमों के रूप में पहले संकलित करता है और श्रुतधर स्थविर उपांगों को बाद में संकलित करते हैं। यह संकलन का कालक्रम निर्विवाद है।
अंग आगमों को संकलित करने वाला गणधर एक होता है और उपांग आगमों को संकलित करने वाले श्रुतधर
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