Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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(५) तारामण्डल तारा शब्द की रचना
तारा शब्द स्त्रीलिंग है। तृ प्लवन-तरणयोः धातु से 'तारा' शब्द की सिद्धि होती है। तरन्ति अनया इति तारा।
सांयात्रिक - जहाजी व्यापारियों के नाविक रात्रि में समुद्र यात्रा तारामण्डल के दिशा बोध से करते थे। ___ ध्रुव तारा सदा स्थिर रह कर उत्तर दिशा का बोध कराता है। शेष दिशाओं का बोध ग्रह, नक्षत्र और राशियों की नियमित गति से होता रहता है। इसलिये नौका आदि के तिरने में जो सहायक होते हैं, वह तारा कहे जाते हैं।
रेगिस्तान की यात्रा रात्रि में सुखपूर्वक होती है इस लिये यात्रा के आयोजक रात्रि में तारा से दिशाबोध करते हुए यात्रा करते हैं।
तारामण्डल के विशेषज्ञ प्रान्त का, देश का शुभाशुभ जान लेते हैं इसलिये ताराओं का पृथ्वीतल के प्राणियों से अति निकट का संबंध सिद्ध है।
इस प्रकार चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा मानव के सुख-दुःख के निमित्त है। गणितानुयोग का गणित सम्यक् श्रुत है
मिथ्याश्रुतों की नामावली में गणित को मिथ्याश्रुत माना है', इसका यह अभिप्राय नहीं है कि – 'सभी प्रकार के गणित मिथ्याश्रुत हैं।'
आत्मशुद्धि की साधना में जो गणित उपयोगी या सहयोगी नहीं है, केवल वही गणित 'मिथ्याश्रुत' है, ऐसा समझना चाहिये। यहां 'मिथ्या' का अभिप्राय 'अनुपयोगी' है, झूठा नहीं।
वैराग्य की उत्पत्ति के निमित्तों में लोकभावना अर्थात् लोकस्वरूप का विस्तृत ज्ञान भी एक निमित्त है, अत: अधो और ऊर्ध्व लोक से संबंधित सारा गणित 'सम्यक श्रत' है, क्योंकि वह गणित आजीविका या अन्यान्य सावध क्रियाओं का हेतु नहीं हो सकता है।
स्थानांक, समवायांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति - इन तीनों अंगों में तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति - इन तीनों उपांगों में गणित संबंधी जितने सूत्र हैं वे सब सम्यक्श्रुत हैं। क्योंकि अंग, उपांग सम्यक्श्रुत हैं। अन्य मान्यताओं के उद्धरण - स्वमान्यताओं का प्ररूपण
चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति में अनेक मान्यताओं के उद्धरण दिये गये हैं, साथ ही स्वमान्यताओं के प्ररूपण भी किये गये हैं। अन्य मान्यताओं का सूचक 'प्रतिपत्ति' शब्द है। चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति में जितनी प्रतिपत्तियां हैं, उनकी सूची इस प्रकार है -
१. नन्दीसूत्र २. जगत्कायस्वभावी च संवेग-वैराग्यार्थम्। त्तत्त्वार्थसूत्र अ. ७
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