Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूर्यप्रज्ञप्ति में प्रतिपत्तियों की संख्या प्राभृत प्राभृत-प्राभृत सूत्र प्रतिपत्ति संख्या प्राभृत प्राभृत-प्राभृत सूत्र प्रतिपत्तियां संख्या १५ ६ प्रतिपत्तियां १
२० ३ प्रतिपत्तियां ५ प्रतिपत्तियां २
८ प्रतिपत्तियां १७ स्वमत कथन २
२२ २ प्रतिपत्तियां १८ ७ प्रतिपत्तियां
२३ ४ प्रतिपत्तियां १९ ८ प्रतिपत्तियां
१२ प्रतिपत्तियां 'एक के समान स्वमान्यता' ४
१६ प्रतिपत्तियां प्राभृत प्राभृत-प्राभृत सूत्र प्रतिपत्ति संख्या प्राभृत प्राभृत-प्राभृत सूत्र प्रतिपत्तियां संख्या २० प्रतिपत्तियां १०
५ प्रतिपत्तियां २५ प्रतिपत्तियां १०
५ प्रतिपत्तियां २० प्रतिपत्तियां १७
८८ २५ प्रतिपत्तियां ३ प्रतिपत्तियां १८
८९ २५ प्रतिपत्तियां ३ प्रतिपत्तियां १९
१०० १२ प्रतिपत्तियां २५ प्रतिपत्तियां २०
१०२ २ प्रतिपत्तियां २ प्रतिपत्तियां' २०
१०३ २ प्रतिपत्तियां ९६ प्रतिपत्तियां बहुश्रुतों का कर्तव्य
. उपांगद्वय में उद्धृत प्रतिपत्तियों के स्थल निर्देश करना, प्रमाणभूत ग्रन्थ से प्रतिपत्ति की मूल वाक्यावली देकर अन्य मान्यता का निरसन करना और स्वमान्याताओं का युक्तिसंगत प्रतिपादन करना इत्यादि आधुनिक पद्धति की सम्पादन प्रक्रिया से सम्पन्न करके उपांगद्वय को प्रस्तुत करना।
अथवा - किसी शोधसंस्थान के माध्यम से चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति पर विस्तृत शोधनिबन्ध लिखवाना। किसी योग्य श्रमण-श्रमणी या विद्वान् को शोधनिबन्ध लिखने के लिये उत्साहित करना।
शोधनिबन्ध-लेखन के लिये आवश्यक ग्रन्थादि की व्यवस्था करना। शोधनिबन्ध लेखक का सम्मान करना। ये सब श्रुतसेवा के महान् कार्य हैं। एक व्यापक भ्रान्ति
दोनों उपांगों के दसवें प्राभृत के सतरहवें प्राभृत-प्राभृत में प्रत्येक नक्षत्र का पृथक-पृथक भोजन-विधान है। इनमें मांस भोजन के विधान भी हैं।
इन्हें देखकर सामान्य स्वाध्यायी के मन में एक आशंका उत्पन्न होती है। १. (क) इन प्रतिपत्तियों के पूर्व के प्रश्नसूत्र विच्छिन्न हैं।
(ख) इन प्रतिपत्तियों के बाद स्वमत-प्रतिपादक सूत्रांश भी विच्छिन्न हैं।
उपांगद्वय के संकलनकर्ता ने प्रतिपत्तियों के जितने उद्धरण दिये हैं, उनके प्रमाणभूत मूल ग्रन्थों के नाम, ग्रन्थकारों के नाम, अध्याय, श्लोक, सूत्रांक आदि नहीं दिये हैं।
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