Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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इसी प्रकार चन्द्र और सूर्य प्रज्ञप्ति के अन्त में दी हुई प्रशस्ति गाथाओं में से प्रथम गाथा के दो पदों में संकलनकर्त्ता ने कहा है 'इस भगवती ज्योतिष - राज-प्रज्ञप्ति का मैंने उत्कीर्तन किया है।'
इस ग्रन्थ के रचयिता ने कहीं यह नहीं कहा कि 'मैं चन्द्रप्रज्ञप्ति या सूर्यप्रज्ञप्ति का कथन करूंगा, किन्तु 'ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति' यही एक नाम इसके रचयिता ने स्पष्ट कहा है, इस सन्दर्भ में यह प्रमाण पर्याप्त है।
यह उपांग एक उपांग के रूप में कब माना गया ? और इसके दो अध्ययनों अथवा दो श्रुतस्कन्धों को दो उपांगों के रूप में कब ये मान लिया गया ? ऐतिहासिक प्रमाण के अभाव में क्या कहा जाय ।
ज्योतिष - राज-प्रज्ञप्ति के संकलनकर्त्ता
प्रश्न उठता है - 'ज्योतिष - राज-प्रज्ञप्ति' के संकलनकर्त्ता कौन थे ?
इस प्रश्न का निश्चित समाधान संभव नहीं है, क्योंकि संकलनकर्त्ता का नाम कहीं उपलब्ध नहीं है ।
'चन्द्र प्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति' को कइयों ने गणधरकृत लिखा है। संभव है इसका आधार चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्ररम्भ की चतुर्थ गाथा' को मान लिया गया है। किन्तु इस गाथा से गौतम गणधरकृत है, यह कैसे सिद्ध हो सकता है ?
इसके संकलनकर्त्ता कोई पूर्वधर या श्रुतधर स्थविर हैं, जो यह कह रहे हैं कि 'इन्द्रभूति' नाम के गौतम गणधर भगवान महावीर को तीन योग से वंदना करके 'ज्योतिष - राज - प्रज्ञप्ति' के सम्बन्ध में पूछते हैं।
. ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति का संकलनकाल
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भगवान महावीर और निर्युक्तिकार श्री भद्रबाहुसूरि इन दोनों के बीच का समय इस ग्रन्थराज का संकलनकाल कहा जा सकता है, क्योंकि भद्रबाहुसूरिकृत 'सूर्यप्रज्ञप्ति की निर्युक्ति' वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि के पूर्व ही नष्ट हो गई थी, ऐसा वे सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्ति में स्वयं लिखते हैं ।
इस गाथा में 'पुच्छर' क्रिया का प्रयोग अन्य किसी संकलनकर्ता ने किया है।
ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति एक स्वतंत्र कृति है
संकलनकर्त्ता चन्द्रप्रज्ञप्ति की द्वितीय गाथा में पाँच पदों का वन्दन करता है और तृतीय गाथा' में वह कहता है कि 'पूर्वश्रुत का सार निष्यन्द - झरना' रूप स्फुट - विकट सूक्ष्म गणित को प्रकट करने के लिये 'ज्योतिष - गण - राज - प्रज्ञप्ति ' को कहूँगा । इससे स्पष्ट ध्वनित होता है - यह एक स्वतंत्र कृति है । चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रत्येक सूत्र के प्रारम्भ में 'ता' का प्रयोग है। यह 'ता' का प्रयोग इसको स्वतंत्र कृति सिद्ध करने के लिये प्रबल प्रमाण है।
१. गाहा - इय एस पागडत्था, अभव्वजणहियय दुल्लभा इणमो ।
उक्कित्तिया भगवती, जोइसरायस्स पण्णत्ती ॥ ३ ॥ नामेण इंदभूइत्ति, गोयमो वंदिऊण तिविहेणं । पुच्छइ जिणवरवसहं, जोइसरायस्स पण्णत्ति ॥ ४ ॥ नमिऊण सुर-असुर गरुल-भुयंगपरिवंदिए गयकिलेसे । अरिहे सिद्धायरिए उवज्झाय सव्वसाहू य॥ २ ॥ फुड - वियड - पागडत्थं, वुच्छं पुव्वसुय-सारणिस्संदं । सुहुमं गणिणोवइट्ठ, जोइसगणराय - पण्णत्तिं ॥ ३ ॥
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