Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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विभिन्न काल में विभिन्न होते हैं अतः उनकी धारणाएं तथा संकलन पद्धति समान संभव नहीं है।
स्थानांग अंग आगम है। इसके दो सूत्रों में चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति के नामों का निर्देश दुविधाजनक है, क्योंकि स्थानांग
के पूर्व चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति का संकलन होने पर ही उनका उसमें निर्देश संभव हो सकता है।
इस विपरीत धारणा के निवारण के से पूर्व उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिये
नक्षत्र - गणनाक्रम में परस्पर विरोध है
चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति दशम प्राभृत के प्रथम प्राभृत-प्राभृत में नक्षत्र गणनाक्रम की स्वमान्यता का प्ररूपण है - तदनुसार अभिजित के उत्तराषाढ़ा पर्यन्त २८ नक्षत्रों का गणनाक्रम है किन्तु स्थानांग अ. २, उ. ३, सूत्रांक ९५ में तीन गाथाएँ नक्षत्र - गणनाक्रम की हैं और यही तीन गाथाएँ अनुयोगद्वार के उपक्रम विभाग में सूत्र १८५ में हैं। इनमें कृत्तिका से भरणी पर्यंत नक्षत्रों का गणनाक्रम है।
स्थानांग अंग आगम है - इसमें कहा गया नक्षत्र - गणनाक्रम यदि स्वमान्यता के अनुसार है तो सूर्यप्रज्ञप्ति में कहे गये नक्षत्र - गणनाक्रम को स्वमान्यता का कैसे माना जाय ? क्योंकि उपांग की अपेक्षा अंग आगम की प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है।
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२.
लिये बहुश्रुतों को समाधान प्रस्तुत करना चाहिये किन्तु समाधान प्रस्तुत करने यह संक्षिप्त वाचना की सूचना नहीं है ये दानों अलग-अलग सूत्र हैं।
यदि स्थानांग में निर्दिष्ट नक्षत्र गणनाक्रम को किसी व्याख्याकार ने अन्य मान्यता का मान लिया होता तो परस्पर विरोध निरस्त हो जातां किन्तु जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि के आगम पाठों से स्वमान्यता का क्रम अभिजित से उत्तराषाढ़ा पर्यंत का है अन्य क्रम अन्य मान्यता के हैं।
सूर्यप्रज्ञप्ति वृत्ति के अनुसार प्राभृत शब्द के अर्थ
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इष्ट पुरुष के लिये देशकाल के योग्य हितकर दुर्लभ वस्तु अर्पित करना
अथवा जिस पदार्थ से मन प्रसन्न हो ऐसा पदार्थ इष्ट पुरुष को अर्पित करना, ये दोनों शब्दार्थ हैं ।
(क) स्थानांग अ. २, उ. २, सू. १६० (ख) स्थानांग अ. ४, उ. १, सू. २७७
(क) अथ प्राभृतमिति कः शब्दार्थ : ?
उच्यते - इह प्राभृतं नाम लोके प्रसिद्धं यदभीष्टाय पुरुषाय देश-कालोचितं दुर्लभ वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते । (ख) प्रकर्षेण आ-समन्ताद् म्रियते पोष्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानेनेति प्राभृतम् ।
कालौचित्येनोपनीयन्ते ।
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(ग) विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परमदुर्लभा परिणामसुन्दराश्चाभीष्टेभ्यो विनयादिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देश- सूर्य. सू. ६ वृत्ति-पत्र ७ का पूर्वभाग श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति के अध्ययन आदि विभागों के लिए 'प्राभृत' शब्द प्रयुक्त है। दिगम्बर परम्परा के कषायपाहुड आदि सिद्धान्त ग्रन्थों के लिये प्रयुक्त 'पाहुड' शब्द के विभिन्न अर्थ
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- जिसके पद स्फुट
- व्यक्त हैं वह 'पाहुड' कहा जाता है।
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जो प्रकृष्ट पुरुषोत्तम द्वारा आभृत
जो प्रकृष्ट ज्ञानियों द्वारा आभूत जाता है।
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प्राभृत पद का परमार्थ
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प्रस्थापित है वह 'पाहुड' कहा जाता है।
धारण किया गया है अथवा परम्परा से प्राप्त किया गया है वह 'पाहुड' कहा - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष से उद्धत