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आधारांग की सूक्तियाँ
सात १७. मोहाच्छन्न अज्ञानी साधक संकट आने पर धर्म शासन की अवज्ञा कर फिर
संसार की ओर लौट पड़ते हैं।
१८. बार-बार मोहग्रस्त होने वाला साधक न इस पार रहता है, न उस पार;
अर्थात् न इस लोक का रहता है और न पर लोक का।
१९. जो साधक कामनाओं को पार कर गए हैं, वस्तुतः वे ही मुक्त पुरुष हैं ।
२०. जो लोभ के प्रति अलोभवृत्ति के द्वारा विरक्ति रखता है, वह और तो क्या,
प्राप्त काम-भोगों का भी सेवन नहीं करता है।
२१. जिस साधक ने बिना किसी लोक-परलोक की कामना के निष्क्रमण किया
है, प्रव्रज्या ग्रहण की है, वह अकर्म (बन्धन-मुक्त) होकर सब-कुछ का
ज्ञाता, द्रष्टा हो जाता है । २२. यह जीवात्मा अनेक बार उच्च गोत्र में जन्म ले चुका है और अनेक बार नीच गोत्र में।
इस प्रकार विभिन्न गोत्रों में जन्म लेने से न कोई हीन होता है और न
कोई महान् । २३. आत्मज्ञानी साधक को ऊँची या नीची किसी भी स्थिति में न हर्षित होना
चाहिए, और न कुपित। २४. जो वासना के प्रवाह को नहीं तैर पाए हैं, वे संसार के प्रवाह को नहीं ।
तैर सकते। जो इन्द्रियजन्य कामभोगों को पार कर तट पर नहीं पहुँचे हैं, वे संसारसागर के तट पर नहीं पहुँच सकते । जो राग द्वेष को पार नहीं कर पाए हैं, वे संसार सागर से पार नहीं हो सकते ।
२५ अज्ञानी साधक जब कभी असत्य विचारों को सुन लेता है, तो वह उन्हीं
में उलझ कर रह जाता है।
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