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भ्रमण किया, भव में प्रभु से मुख मोड । अब भी नाथ शरण धारण कर, भव बन्धन दे तोड ॥१॥ भारभूत पृथ्वी पर वे नर, जिनकी न प्रभु से प्रीत । जन्म वृथा सब खोकर अपना, मरण समय भवभीत ॥ २ ॥ अनन्त ज्ञान दर्शन चारित्र ये, आतम गुग प्रगटाय । पाप कर्म सब अनन्तकाल के, क्षण में दूर पलाय ॥ ३ ॥ संघ चतुर्विध स्थापन कर, तीर्थंकर गोत्र बंधाय । नित आत्म कल्याण को करते, पर हित चित्त दगाय ॥ ४ ॥ ओसियाँ मण्डल नित्य जिनजी के, चरणों में रहे लीन । नहीं नाथ बिन शरणा, धन को रहें जिसके आधीन ।। ५ ।।
गायन नं. ४६ ( तर्ज-जट जावो चंदन हार लावो ) . भवि भावे देरासर आवो, जिणंदवर जय बोलो । पछी पूजन करी शुभ भावे, हृदय पट खोलोने ॥ शिवपुर जिनथी मांगजो, मांगी भवनो अंत । लाख चोरासी वारवा, क्यारे थइशु अमे प्रभु संत । भवि एम बोलोने ॥ भवि ॥ मोंधी मानव जिंदगी, मोंघो प्रभुनो जाप । जी चित्तथी दूर करो, तमे कोटी जनमना पाप । हृदय पट खोलोने ॥ २ ॥ तुं छे मारो साहिबो, ने हु छु तारो दास । दीनानाथ मुज पालीने, प्रभु आपोने शीवपुर वास । हृदयपट खोलोने ॥३॥ छाणी गामनो राजीयो, नामे शांति जिणंद । आत्मकमलमां ध्यावतां, शुद्ध मले लब्धिनो वृंद । हृदयपट खोलोने ॥३॥
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स्तवनमंजरी.
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