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श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर २००७
जैन दर्शन एवं श्री अरविन्द के दर्शन में चेतना का स्वरूप : एक तुलनात्मक सर्वेक्षण
डॉ० अवनीश चन्द पाण्डेय *
मनुष्य मात्र चेतन प्राणी ही नहीं है, बल्कि चिन्तनशील प्राणी भी है और उसकी यह विशिष्टता उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है। वह न केवल 'ब्रह्माण्ड' की विभिन्न वस्तुओं पर विचार करता है बल्कि 'स्वयं' के ऊपर भी विचार करता है तथा इस विचार-प्रक्रिया के क्रम में वह यह अनुभूत करता है कि 'मैं एक सचेतन एवं ज्ञानात्मक प्राणी हूँ।' वह यह भी पाता है कि मानवीय चेतना से अलग यदि कोई चीज है तो उसका होना उसी सीमा तक है जिस सीमा तक वह मानवीय चेतना से सम्बद्ध है और यदि मानवीय चेतना से सम्बद्ध नहीं है तो वह मानवीय दृष्टि से न होने के बराबर है। इस अर्थ में मानव जीवन की सम्पूर्ण समस्याएं उसके प्रति मूलत: उसकी चेतना की समस्याएं हैं। अत: सर्वोपरि प्रश्न भी यही होना चाहिए कि 'चेतना क्या है'? जैन दर्शन एवं श्री अरविन्द दर्शन में 'चेतना' पर पर्याप्ते विश्लेषणात्मक ढंग से विचार किया गया है।
जैन दर्शन में चेतना विचार
आत्मा की जड़ से भिन्नता सिद्ध करने के लिए शीलांकाचार्य युक्ति प्रस्तुत करते हैं कि पांचो इन्द्रियों के विषय अलग-अलग हैं, प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय का ही ज्ञान करती है, जबकि पांचों इन्द्रियों के विषयों का एकत्रीभूत रूप में ज्ञान करने वाला अन्य कोई अवश्य है और वह आत्मा है। '
जैन दर्शन में जीव को ही आत्मा माना गया है जिसका सामान्य लक्षण उपयोग है।' 'उपयोग' शब्द चेतना को अभिव्यक्त करता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि जैनों के अनुसार चेतना जीव का अनिवार्य गुण है। इसी गुण के कारण वह समस्त जड़द्रव्यों से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है। बाह्य एवं आभ्यंतर कारणों से 'तत्त्वार्थसूत्र' में उपयोग (चेतना) दो प्रकार का माना गया है.
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१. ज्ञानोपयोग और
२. दर्शनोपयोग। *
* पूर्व शोध छात्र, दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी