Book Title: Sramana 2007 10
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 217
________________ परिचत्त-बंधु-वग्गो अह गुरु-अणुराय- परवसो तत्तो। एगागी वेयड्डे उत्तर-सेढ़ीए नयरेसु ।। २२३।। सव्वेसुवि परिभमिओ न य लद्धा तीए कत्थवि पउत्ती। तत्तो य दक्खिणाए सेणीए आगओ अहयं ।। २२४।।युग्मम्।। संस्कृत छाया परित्यक्त- बन्धुवर्गोऽथ गुर्वनुराग-परवशस्ततः । एकाकी वैताढ्ये उत्तरश्रेण्यां नगरेषु ।। २२३।। सर्वेष्वपि परिभ्रान्तो न च लब्धा तस्याः कुत्रापि प्रवृत्तिः । ततश्च दक्षिणस्यां श्रेण्यामागतोऽहम् ।। २२४।। युग्मम् ।। गुजराती अर्थ त्याए पछी भारे अनुरागथी परवश थयेलो, त्याग करेला स्वजन वर्गवाळो, एकाकी वैताढ्य नी उत्तरश्रेणी ना नगरोमां, बधे ज भ्रमण करतो तेणीनी याळ क्यांय पण न मळी, आथी पछी हुँ दक्षीणश्रोणीमां आव्यो। हिन्दी अनुवाद तत्पश्चात् अति अनुराग से परवश हुआ, स्वजन वर्ग को त्याग करके एकाकी वैताढ्य की उत्तरश्रेणि के नगरों में घूमते हुए उस बाला का कहीं भी पता नहीं लगने से बाद में मैं दक्षिणश्रेणी में आया। गाहा तत्थवि पुरेसु केसुवि आहिंडिय इच्छियं अपावितो। अज्ज पुणो इह पत्तो तुह नयरे कुंजरावत्ते ।। २२५।। संस्कृत छाया तत्रापि पुरेषु केष्वपि आहिण्ड्येष्टमप्राप्नुवन् । अद्यपुनरिह प्राप्तस्तव नगरं कुञ्जरावर्त्तम् ।। २२५।। गुजराती अर्थ त्यां पण केटलाक नगरो मां अमी ने इच्छित ने नहीं प्राप्त करतो, वळी अत्यारे तारा कुजरावर्त नगरमां अहीं आव्यो छु। 309

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