Book Title: Sramana 2002 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 10
________________ स्व० भँवरलालजी नाहटा - एक युगपुरुष : ५ पच्छा जं तं उ वित्तं अकह कहा कह कहिज्जंति अर्थात् उसके पश्चात् जो कुछ घटित हुआ वह अकथनीय है- कैसे कहा जाय? इस प्रकार मूक भाव से भी कथ्य को अभिव्यक्ति दे देना, यह कवि की सम्प्रेषणशीलता का स्पष्ट प्रमाण है। यह कृति पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी से प्रकाशित है। ३. सिरीसहजाणंदघनचरियं- कलकत्ता विश्वविद्यालय के भाषा-विज्ञान विभाग के प्रोफेसर सत्यरंजन बनर्जी ने इस ग्रन्थ की भूमिका में कहा है __ "भँवरलालजी नाहटा द्वारा रचित सहजाणंदघनचरियं वर्तमानकाल में रचित एक अपभ्रंश काव्य है। मूलत: यह काव्य अपभ्रंश की अन्तिम स्तर की भाषा अवहट्ट में रचित है। विद्यापति की कीर्तिलता व पिंगलाचार्य की प्राकृत पिंगल इसी भाषा में रचित हैं। श्री नाहटाजी इस काल के विद्यापति या पिंगलाचार्य थे।" यह महाकाव्य २४४ गाथाओं में हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित है। पूर्वकालीन कवियों की रचनाओं की तुलना में नाहटाजी के उक्त काव्य का मान किसी अंश से कम नहीं है। कवित्व की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ अतुलनीय है। - इस काव्य के शब्द अत्यन्त सहज व सरल हैं जिससे भाषा का सामान्य ज्ञान रखने वाले भी इसका रसास्वादन कर सकेंगे। उपमादि अलङ्कारों का भी इसमें अभाव नहीं है तथा छन्द सरल व त्रुटिहीन हैं। ४. अलंकारदप्पन- यह प्राकृत-भाषा में रचित एक अलङ्कार ग्रन्थ है जिसका हिन्दी अनुवाद संस्कृतच्छाया सहित श्री नाहटाजी ने किया है। यह ग्रन्थ पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी से वर्ष २००१ में प्रकाशित हुई है। इस ग्रन्थ में अलङ्कार-सम्बन्धी जो विवरण दिया गया है इससे इसका निर्माणकाल ८वीं-११वीं शताब्दी का माना जा सकता है। इस रचना के कर्ता का पता नहीं चलता। प्राकृत-भाषा की अलङ्कार-सम्बन्धी यह एकमात्र रचना जैसलमेर के बड़े ज्ञान भण्डार से ताड़पत्रीय प्रति के रूप में प्राप्त हुई है। ५. विविधतीर्थकल्प- प्राकृत व संस्कृत-भाषा में जिनप्रभसूरि विरचित कल्पप्रदीप अपरनाम विविधतीर्थकल्प नामक इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद नाहटाजी ने पूर्ण कर सन् १९७८ में श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर (राजस्थान) से प्रकाशित करवाया। कल्पप्रदीप अथवा विशेषतया प्रसिद्ध विविधतीर्थकल्प नामक यह ग्रन्थ जैन-साहित्य का एक विशिष्ट रत्न है। ऐतिहासिक और भौगोलिक दोनों ही दृष्टियों से इस प्रकार का कोई दूसरा ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं हुआ। यह ग्रन्थ विक्रम १४वीं शताब्दी में जैनधर्म के जितने पुरातन और विद्यमान प्रसिद्ध-प्रसिद्ध तीर्थस्थान थे उनके Jain Education International For Private' & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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