Book Title: Sittunja Kappo
Author(s): Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 179
________________ 164 .0000000000000001 00000000000000000ww शत्रुञ्जय-कल्पवृत्ती कम्पयन् भूतलं सैन्यै-दिशो बधिरयन रथैः / रजोभिः छादयन् व्योम रामो लङ्कामवेष्टयत् // 738 // अक्खोहिणी सहस्सं एक्कं चित्र वानराण सव्वाणं / भामंडलेण सहियं भणियं चउरंगसेन्नस्स // 736 // तदा दशाननः सर्वं बलं सन्नह्य वेगतः / लङ्काया निर्गतो युद्ध कत्तु रामाऽरिणा समम् / / 740 // अक्खोहिणी सहस्सा हवंति चत्तारि बुहजणुद्दिट्ठा / रावणबलस्स एवं मगहवई ! होइ परिमाणं 741 // दैवतैराऽऽयसैर मिथः क्षेपणदारुणैः / दशास्य-पद्मसैन्यानां सङग्रामो दारुणोऽभवत् / 742 // गजस्थो गजगैः सार्द्ध-मश्वस्थस्तुरगस्थितैः / रथस्थो स्थगैः सार्धं युद्ध वितेनिरे भटाः / / 743 // जायमाने रणे घोरे मिथस्तत्र जयेच्छया / उद्धतेषु मटेष्वेव जयश्रीः संशयेऽपतत् // 744 // आदेशं प्राप्य रामस्य युद्ध कुर्वति मारुतौ / दशास्यस्य महायोधौ भग्नौ हस्तप्रहस्तकौ // 745 // रामादेशादितो युद्ध कुर्वतो नलनीलयोः / सिंहनादा द्विषां वक्षः स्फोटयन्ति दिशोदिशम् // 746 / / वाद्यमानेषु तूर्येषु सर्वेषु सङ्गरे तदा / युद्धयन्ति सुभटा बाढं द्वयोश्वम्वोः परस्परम् // 747|| यतः-भंभामुइंगडमरुपढका हुकारसंखपउराई / खरमुहि-हुडुकपावय-कंसालयतिव्वसहाई // 748 // गयतुरयकेसरीणं सद्दो वित्थरइ महिसवसहाणं / मयपक्खीण बहुविहो कायरपुरिसाग भयजणणो।७४९॥ यदा नलः कपिर्हस्तं प्रहस्तं नीलवानरो / निन्यतुर्मरणं पुष्प-वृष्टिस्तदाऽपतत् खतः // 750 // नलवानानीलेस्तु कपिहस्तप्रहस्तकान् / हतान् श्रु त्वा मुदं रामो लेभे लक्ष्मणसंयुतः // 751 // हतौ हस्तप्रहस्तौ तु श्रु त्वा दशास्यसैन्यतः / सारणः शुकमारीचौ सिंहव्याघ्रस्वयम्भुवः // 752 / / बीभत्सोद्दामचन्द्रार्काः कामवामौ स्मरामरौ / क्षेमकरो ज्वरो भीमो वीरो बलिंदमो धनः / / 753 // भीमदन्तमहास्कन्धौ महारथप्रजापती / अरिंदमः शतरथः सहस्रांशुमतङ्गजः / / 754 // वज्रोदरो महावेगः सुन्दपसेन्दुमाधवाः / उत्थिताः समरं कत यमा इव भयङ्कराः।।७५५॥ चतुर्भिः कलापकम् एते युद्धं वितन्वानाः शरैः खड्गैश्च दारुणैः रामस्य शिबिरं चक्रु-र्हतप्रायं क्षणादपि / / 756 // संहारं भूरिजीवानां निरीक्ष्य सप्तघोटकः / ययावस्तछलादन्य-विषयं करुणापरः // 757 / / प्रातः पद्मभुवा सद्यः प्रेरिता वानरादयः / अढौकन्त दशास्यस्य सैन्यं हन्तु बलोत्कटाः / / 758|| संग्रामाङ्गणमागतेन भवता चापे समारोपिते, देवाकर्णय येन येन सहसा यद्यत् समासादितम् / कोदण्डेन शराः शरैरपि शिरस्तेनापि भूमण्डले, तेन त्वं भवता च कीर्तिरतुला कीर्त्या च लोकत्रयी // जायमाने तदा युद्धे सैन्ययोरुभयोरपि / लक्ष्मणोऽवग् दशास्य त्वा-श्रित्येति प्रकटारवम् // 760 / रे राक्षसाः कथयत क स रावणाख्यो रत्नं रवीन्दुकुलयोरपहृत्य नष्टः / त्रैलोक्यदीपकरवित्रिशिखाकराले यो रामनामदहने भविता पतङ्गः // 761 // अथोत्तस्थुर्दशास्यस्य भटा वीररसोत्कटाः / नटीमिव कराग्रस्थां नर्तयन्तोऽसिवल्लरीम् // 762 // ध्वानयन्तो दिशः शब्दै-स्तिरयन्तो दिशः शरैः / दारयन्तोऽवनी पद्भ्यां कम्पयन्तोऽचलानपि / / 763 // अब्धोनुवलयन्तश्च मञ्जयतोऽवनीरुहान् / उत्पतन्तः पतन्तश्च भटा जघ्नुः परस्परम् / / 764 // त्रिभिर्विशेषकम् दशास्यस्य तु हुङ्कारैः प्रेरिता यामिनीचराः / बमञ्जुर्वानरान् भूरीन् तटवृक्षानिवोर्मयः-|७६५॥ भग्नं रामबलं वीक्ष्य सुग्रीव उत्थितो युधे / निवार्य हनुमॉस्तं च कौणपान् हन्तुमुत्थितः // 766 / /

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