Book Title: Sittunja Kappo
Author(s): Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 227
________________ 212 शत्रुञ्जय-उत्सवृत्ती 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000M देहि भोज्यं ममेदानीं नो चेद् भामानिकेतने / यास्यामि पारणायेति तेनोक्त रुक्मिणी जगौ / / 264 // नारदोक्तोऽपि नो पुत्र आयातोऽत्र ममालये / तेनोद्वगेन मे गेहे पेचेऽन्न न मनाग मया // 265 / पृष्टया कुलदेव्या तु ममाऽद्य पुत्रसङ्गमः / कथितो नाभवत् सत्योऽतो त्वं वक्षि तदागमम् // सोऽप्याह रिक्तपाणीनां पृष्ट न सफलं भवेत् / दीयते भोजनं वर्य-मथवा भक्तिपूर्वकम् / / 296 // यतः-"रिक्तपाणिर्न पश्येत् देवं नैमित्तिकं गुरुम् / उपाध्यायं च वैद्यं च फलेन फलमादिशेत् / / 297 // रुक्मिण्याऽऽचष्ट कि पेया रोचते वद साम्प्रतम् / स प्राह यदि लभ्येत पेया स्यादमृतं मम // 268 // राध्यमाना तया पेया न सिसेध यदा तदा / ययाचे स मुनिः कृष्ण-मोइकान् रुक्मिणी वरान् // 26 // रुक्मिण्याऽऽह मुकुन्दस्य मोदका अन्यदेहिनाम् / भक्षिता नहि जीर्यन्ति तेनान्यन मार्गया धुना // 300 // सोऽवक् त्वं मोदकान् देहि किं ते जरणचिन्तया / तपोवलाद्वलिष्ठान्न-मपि जीर्यति तत्क्षणात् / / 301 // सशंका सा ददावेकं मोदकं मुनये तदा / सोऽपि भुक्त्वा क्षणात्तां च तं याचितवान् पुनः // 302 // प्रदत्तान् मोदकान भूरीन् भुञ्जानं तं मुनि तदा / वीक्ष्याऽवग्रुक्मिणी तेऽस्ति बलिष्ठं तपसो बलम् / / 303 // इतो मुण्डितशीषर्षां तां जल्पन्ती मुनिनोदितम् / भामा प्रत्यवदन् भृत्याः फलरिक्तमभूदनम् // 304 / / बभूवु निजलानीतः सरांसि सकलान्यपि / पपात तुरगाद् भानु-र्वाहयन् वाहनं क्षितौ // 305 / / भान्वर्थागतकन्यास्तु स्वर्गनारीसहोदरीः / अकस्माजहिरे केन-चिन्नरेणापि साम्प्रतम् // 306|| भामया प्रेषिता दासी केशानयनहेतवे / रुक्मिणीसदने गत्वा ममार्ग शीर्पवालका // 307 / / दासी सन्मानिता यावद् रुक्मिण्या रुचिरोक्तितः / तावत्तत्र स्थितो माया-मुनिरेवं जगाद स // 308|| प्रच्छन्नं प्रेपिता सत्य-भामया तद्वरं कृतम् / रुक्मिण्याश्च शिरोजातान सत्या ते स्वामिनी किल // 306 / / श्रानयन्ती स्वकीयान्ते भवत्याः पाणिनाऽधुना / कथं लज्जति नो पापा-न बिभेति च साम्प्रतम् / / 310 // युग्मम्।। मुनिस्तस्याः शिरोजातेभृत्वा कंचन भाजनं / तां दासी प्रेषयामास भामोपान्ते तथास्थिताम् // 311 // अनागतान् शिरोजातान् रुक्मिण्या दासिकां पुनः / भद्रीकृतोत्तमाङ्गा तां वीक्ष्य सत्या चिखेद सा // 312 // दास्या एव शिरोजातान् दासी तादृशमस्तकाम् / नीत्वा कृष्णान्तिके सत्य-भामा रोपादिदं जगौ // 313 / प्रतिभूस्त्वमभू रुक्मि-पुच्या केशकृते तदा / रुक्मिण्या तु मे दामी चक्र एवंविधाऽधुना // 314 / / कृष्णोऽवग् दृश्यसे भद्री-कृतशीर्वाऽधुना कथम् / स्वामिन्या सदृशी दासी तया चक्रेऽधुना द्रिये ! // सत्यभामा जगौ स्वामिन् ! हास्येनानन मे सृतम् रुक्मिणी शीर्षजान सद्यो भवानानयतु स्फुटम् / / 315|| कृष्णेन रुक्मिणीगेहे केशार्थ प्रेषितो हली / कृष्णं तत्र स्थितं वीक्ष्य लजितो क्वले द्रुतम् // 16 // पश्चादेत्य हली तत्रो-पविष्ट केशवं स्वयम् / प्राह रूपद्वयकृते स्नुषाऽहं हेरितो त्वया // 317 / / रुक्मिणीसदने रूपं त्वयैकं विहितं किल / रूपेणैकेन चात्रेदं वीक्ष्यसे साम्प्रतं हरे ! // 318 // हरिराह न तत्रागा-महं शपथपूर्वकम् / मायेयं ते गदित्वेति रामः स्वस्थानीयवान् ||313 / / इतो मुनिर्जगौ रुक्मि-पुत्र्यग्रे ते सुतो ह्ययम् / रुक्मिण्याह कथं पुत्र एष्यति क्षण ईदृशे / / 320 // प्रद्युम्नो ऽथ स्वरूपस्थोऽनमन्मातुः पदौ मुदा / बाहुभ्यां रुक्मिणी पुत्र-मालिलिङ्गातिमोदतः // 321 // रुक्मिण्यालिङ्गिते पुत्रे बाहुभ्यां स्नेहपूर्वकम् / पुत्रोऽाग न पितुः पार्वे वाच्योऽहं पुत्रवाक्यतः / / 322 / /

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