Book Title: Siri Usahanahchariyam
Author(s): Vijaykastursuri, Chandrodayvijay Gani
Publisher: Nemi Vigyan Kastursuri Gyanmandir

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Page 168
________________ 144 सिरिउसहनाहचरिए उत्तारिजमाणलवणा चलंताणेगपुण्णपत्तेहिं सह सोहन्ती सा सुंदरी सामिपायपवित्तियं अट्ठावयगिरि पावेइ। स-मयंकं पुव्वायलं पिव सामिअहिट्ठियं तं गिरिवरं दण भरह- मुंदरीओ महाहरिसं संपत्ता / तओ ते सग्गाववग्गाणं सोवाणमिव विसालसिलं तं अठावयपव्वयं समारोहिरे / तओ भवभमणभीयाणं जंतूणं सरणं चउदुवारं संखित्तजंबूदीवजगई विव समोसरणं समागच्छन्ति / अह ते उत्तरदुवारमग्गेण जहविहिं समोसरणं पविसेइरे, तो ते भरहसुंदरीओ हरिसविण एहिं ऊससंतसंकुचंतदेहाओ परमेसरं तिक्खुत्तो पयाहिणं कुणेइरे, तओ ते रयणभूयलसंकंतजगवइरूवं दटुं ऊसुगा इव तित्थयरं पणमंति, तो भरहचक्कवट्टी भत्तिपवित्तियचारुगिराए आइमं धम्मचक्कवटि थुणिउं पारंभेइ- - भरहेसरकया थुई___हे पहु ! असम्भुयगुणे जपंतो जणो अण्णं जणं थुणेइ, किंतु अहं तुम्ह सब्भुयगुणे वोत्तुंपि अक्खमो तओ कहं थुणेमि ? / तहवि हि जगणाह ! तुव थुइं काहं / जओ दलिदो सिरिमंताणं पि उवायणं किं न देइ ? / तुम्ह पायसरोयदंसणमेत्तेहिं अण्णजम्मणकयाई पि पावाई चंदकिरणेहिं सेहोलीपुष्फाणीव गलेइरे / अचिइच्छणिज्जमहामोहसंनिवायवंताणं पि हे सामि ! तुम्ह परमनिव्वुइकराओ 'सुहोसहिरससरिच्छाओ वायाओ जएइरे / हे नाह ! तुव दिट्ठीओ वासासु बुढीओ विव चकवट्टिम्मि दलिद्दे वा पीइसंपयाणं कारणं / कूरकम्महिमगंठिविद्दावणदिवागरो हे पहु ! अम्हारिसाणं पुण्णेहि इमं पुढवि विहरेसि / वागरणसत्थवावणसीलसण्णासुत्तसरिसी उप्पाय-वय-धुवमई तिवई तुम्ह जएइ / भयवं ! जो इह तुमं थुणेइ तस्सावि एसो चरमो भवो होइ, जो तुवं सुस्मूसइ झियाइ वा तस्स पुणो का कहा ?' इअ भगवंतं भरहेसरो थुणिऊण नमिऊण य पुवुत्तरदिसाए जहारिहं ठाणं उवविसेइ। अह सुंदरी वि उसहज्झयं पहुं वंदिऊण कयंजली गग्गरक्खरगिराए एवं वएइ-'जगवइ ! एयावंतकालं मणसा पासिज्जमाणो तुमं होत्था, संपइ उ बहहिं पुण्णेहि दिट्टीए पच्चक्खं दिट्ठो सि / मयतण्हिआसरिच्छसुहे संसारमरुमंडले लोगेण पुण्णेहि चिय पेऊसमहाद्रहो तुमं पत्तो सि / जगगुरु ! निम्ममो वि तुमं विस्सस्सावि वच्छलो सि, अण्णहा विसमदुहोयहिणो एयं कहं उद्धरसि?। मम सामिणी बंभी कयत्था, भाउपुत्ता कयपुण्णा भाउपुत्तपुत्ता धण्णा, जे हि तुम्हाणं पहं अणुसरिआ / भयवं ! भरहनरिंदनिब्बंधवसेण इयंतकालं जं मए वयं न गहियं, तओ सयंचिय अहं वंचिअ म्हि / जगतारग! ताय ! दीणं मं तारसु, तारसु, गेहुज्जोयगरो 1 शेफाली-लताविशेषः / 2 सुधौषधिः / 3 व्यापनशील / 4 मृगतृष्णिका /

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