Book Title: Siri Usahanahchariyam
Author(s): Vijaykastursuri, Chandrodayvijay Gani
Publisher: Nemi Vigyan Kastursuri Gyanmandir

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Page 190
________________ सिरिउसहनाहचरिए धण्णा चिय देहिणो पइदिणं दुराओ वि धावेइरे, भयर ! सीयपीलिएहिं सूरो विव घोर संसारदुक्ख-वाहिएहिं विवेगवंतेहिं तुमं चेव एगो सरणीकुणीअसि, नाह ! हरिसेणं निमेसरहिएहि नेत्तेहिं जे पाणिणो तुमं पासंति ताणं परलोगम्मि वि देवत्तणं न दुल्लहं, देव ! खीरेण खोमवत्थाणं कज्जलकयमालिण्णं पिव तुव देसणावयणजलेहि नराणं कम्ममलो अवगच्छेइ, सामि ! उसहणाह त्ति जविज्जमाणं तव नामं सवसिद्धिसमाकरिसणमंतत्तणं अवलंवेइ, पहु ! जे तुम्हकेरभत्तिवम्मिया ताणं सरीरीणं बज्जपि न भिंदेइ, मूलंपि न च्छिदेइ' एवं भगवतं पुलयंचिओ रायसिरोमणी सो वाहुबली थुणिऊण नमिऊण य देवयागाराओ निग्गच्छेइ, तओ सो हेम-माणिक-मंडियं रज्जकवयं विजयसिरी विवाहाय कंचुगं पिव गिण्हेइ, तम्हा सो नरीसरो विउल-विद्दुम-समूहेण समुद्दो वित्र भासुरेण तेण कवरण विराएइ, तओ धरणीधवो गिरि-सिहर-निविट्ठ-मेह माला . . सिरिविडंबगं सिरत्तागं सिरम्मि निहेह, पिट्ठीए महाफणिठाणाइण्ण-पायाल-विवरु - वमे लोहनारायभरिए दुण्णि 'तूणे बंधेइ, वामभुयदंडम्मि जुगंत-समय-उड्ढखित्तजमदंडसहोयरं कोदंडं धरेइ / इअ सण्णद्धो बाहुवली पुरोहिएहिं पुरओ 'सत्थि' त्ति आसातिज्जमाणो, सगोत्तवुड्ढाजणेहिं 'जीव जीवत्ति' वुच्चमाणो, वुड्ढ-सिट्ठ-पुरिसेहि 'नंद नंद' त्ति वुच्चंतो, बंदिनरेहिं चिरं 'जय जय' त्ति वइज्जमाणो सो महाभुओ आरोहगेण दिग्णहत्थावलंबणो देवराओ मेरुसिहरं पित्र महागइंदं आरोहेइ / इओ तयाणि चेव पुण्णबुद्धी सिारिभरहेसरनरिंदो वि सुभसिरीए कोसागारं देवयागारं गच्छेइ, तत्थ महामणो सो दिसिविजयाणीयपउमाइतित्थजलेहि सिरि-आइनाहपहुणो पडिमं ण्हवेइ, तओ सो रायसीहो देवदूसेण वस्थेण सिप्पिवरो मणिणो विव अपडिमं तं पडिमं लुहेइ, लुहिऊण हिमायलकुमाराइदिण्ण-गोसीस-चंदणेहिं तं पडिमं नियजसेहिं पुढवि पिव विलिंपेइ, विलिंपिऊण लच्छीघरसरिसपउ मेहिं नयण-थंभणोसहिरूवं पूअं रएइ, रइऊण महीवई धूमवल्लीहिं कत्यूरीपत्तावलिं आलिहंतो विव पडिमाए पुरओ धृवं डहेइ। तो सो समग्ग-कम्म-कहाणं उल्लणं अगिकुडं पिव उदित्त-दीवगं आरत्तिगं गिण्हेइ, तं आरत्तियं उत्तारिऊण आइणाहं च पणमिचा भरहभूवई मत्थयम्मि अंजलि विरइऊण इअ थुणिउं उवक्कमेइ"-जगणाह ! जडो वि जुत्तमाणी अहं तुम थुणेमि ? जओ गुरुणो पुरओ बालाणं लल्लावि गिराओ जुत्ता एव / देव ! गुरुकम्मोवि जीवो तुम्ह सरणं अंगीकुणंतो सिज्झइ, 'सिद्धरसस्स हि फासेण लोहो वि सुवण्णीहोइ' / नाह ! तुमं झायमाणा थुणमाणा अच्चमाणा य धण्णा देहिणो मण-चाय-कायाणं फलं पावेइरे, 1 क्षौमवस्त्रम्-रेशमीवस्त्र / 2 तूणौ-बाणो मूकवानु भाथु / ३-उल्बणम्-उत्कटम् / 4 अस्पष्टा वाचः /

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