Book Title: Siri Usahanahchariyam
Author(s): Vijaykastursuri, Chandrodayvijay Gani
Publisher: Nemi Vigyan Kastursuri Gyanmandir

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Page 169
________________ सुंदरीए दिक्खा / दीवो घडं किं न उज्जोएइ / जगरक्खणिकदिक्खिअ ! पहु ! पसीअहि संसारसमुद्दतारणजाणपत्तसरिच्छं दिक्खं मम देहि / भयवंपि महासत्तरेहिरे ! साहु साहु त्ति बुवंतो तीए सामाइयमुत्तुच्चारणपुव्वं दिक्खं देइ / तओ पहू महन्वयदुमाराम-सुहासारणिसंनिहं अणुसासणमइअं देसणं विहेइ / तओ अप्पाणं मोक्खपत्तमिव मण्णमाणा सा महामणा साहुणीगणमज्झम्मि जिवाणुक्कमेण निसीएइ / सामिणो देसणं सोच्चा पायसरोयाई च पणमिऊण मुइयमणो भरहनरीसरो अउज्झानयरिं वच्चेइ / पुणो नियसयलजणं दटुं इच्छंतस्स भरहेसरस्स अहिगारीहिं जे आगया ते दंसिआ, जे अणागया वि ते संभारिआ / नियाभिसेयमहूसवे वि अणागए ते. भाउणो नच्चा भरहेसरो ताणं पत्तेयं दूए पेसेइ / 'जइ तुम्हे रज्जाई समीहेह ता भरहं सेवेह' ति दुएहिं वुत्ता ते सव्वे वि आलोइऊण इमं वयंति-'पिउणा अम्हाणं भरहस्स य विभइऊण रज्जं दिणं, संसेविज्जमाणो भरहो तओ अहिगं किं काहिइ, किं काले समावडतं कालं रुभिस्सइ ?, किं देहग्गाहिणि जरारक्खसि निग्गहिस्सइ ?, किं वा बाहाकारिणो वाहिवाहे हणिस्सइ ?, जं वा जहुतरं वड्ढमाणं तिण्हं किं दलिस्सइ ?, जइ भरहो एरिससेवाफलं दाउं न समत्यो, तो मणसभावे सामण्णे वि को केण सेविज्जउ / पत्तविसालरज्जो वि जइ असंतोसाओ अम्हाणं रज्जं बलाओ गहिउं इच्छइ तो अम्हे वि तस्स तायस्स तणया, तो हे दुआ ! तायं अविण्णविऊण जेटेण सोअरियबंधुणा तुम्हेच्चयसामिणा जोड़े अम्हे न ऊसाहामो' ताणं दृआणं एवं कहिऊण तंमि चिय समए अट्ठावयगिरिम्मि समो.सरणे संठियं उसहसामि उवगच्छेइरे, परमेसरं पयाहिणतिग काऊण पणमंसित्ता सिरनिबद्धंजलिणो सव्वे वि एवं थुई विहेइरे-'जिणेसर ! देवेहि पि अविण्णेयगुणं तुम थुणिउं को पैच्चलो। तह वि ईस ! विलसंतबालचावला थुणिस्सामो। जे सया तुम नमंसंति ते तवंसिजणेहितो अहिगा, जे उ तुम सेवेइरे ते जोगिहितो वि सेट्टतमा। जगभावपयासणदिणेसर ! पईदिणं नमसंताणं कयपुण्णाणं तुम्ह पायनहंमुणो अवयंसति / जगज्जंतु-अभयप्पय ! तुमए कासइ सामेण बलाओ वा न किंचि गिहिज्जइ, तहवि तुं तेलुक्कचक्कवट्टी सि / पहु ! सव्वजलासयजलेसु निसागरुब्ब इक्को वि तुमं सव्वजीवाणं चित्तेसुं समं वट्टसि / देव ! तुम थुइं कत्तारो सव्वेहिं थुणिज्जइ, तुम्ह अच्चगो सव्वेहि अच्चिज्जइ, तुव पणमियारो सव्वेहिं पण 1 व्याधिव्याधान् / 2 शक्तः / 3 अवतंसयन्ति-शिरोभूषणानि भवन्ति / 4 साम्ना /

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