Book Title: Siddhhemchandra Shabdanushasanam Part 01
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Mokshaiklakshi Prakashan
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________________ 178 श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् // जटाभिरालाप्यते जटिलेन // 90 // स्मिङः प्रयोक्तुः स्वार्थे / 3 / 3 / 91 // प्रयोक्तृतो यः स्वार्थः स्मयस्तदर्थात् णिगन्तात् स्मिङः ‘कर्तर्यात्मनेपदं स्याद् आचास्याऽकर्तर्यपि' / जटिलो विस्मापयते / प्रयोक्तुः स्वार्थ इति किम् ? रूपेण विस्माययति / अकर्तर्यपीत्येव- विस्मापनम् // 91 / / बिभेतेीष् च / 3 / 3 / 92 // प्रयोक्तृतः स्वार्थवृत्तेय॑न्ताद् भियः 'कर्तर्यात्मनेपदं स्याद्, अस्य च भीष्, पक्षे आचाऽकर्तर्यपि' / मुण्डो भीषयते, भापयते वा / प्रयोक्तुः स्वार्थ इत्येव कुञ्चिकया भाययति / अकर्तर्यपीत्येव- भीषा, भापनम् // 12 // मिथ्याकृगोऽभ्यासे / 3 / 3 / 93 // मिथ्यायुक्तात् कृगो ण्यन्तात् क्रियाभ्यासवृत्त्यर्थात् 'कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / पदं मिथ्या कारयते / मिथ्येति किम् ? पदं साधु कारयति / अभ्यास इति किम् ? सकृत् पदं मिथ्या कारयति // 13 // परिमुहा-ऽऽयमा-ऽऽयस-पा-ट्धे-वद-वस-दमा-ऽद-रुच नृतः फलवति / 3 / 3 / 94 // प्रधानफलवति कर्तरि एभ्यो विवक्षितेभ्यो णिगन्तेभ्यः ‘आत्मनेपदम्' स्यात् / परिमोहयते चैत्रम्, आयामयते सर्पम्, आयासयते मैत्रम्, पाययते बटुम्, धापयते शिशुम्, वादयते बटुम्, वासयते पान्थम्, दमयते अश्वम्, आदयते चैत्रेण, रोचयते मैत्रम्, नर्तयते नटम् // 14 // ई-गितः / 3 / 3 / 95 // ईदितो गितश्च धातोः ‘फलवति कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / यजते, कुरुते / फलवतीत्येव- यजन्ति, कुर्वन्ति // 95 //
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