Book Title: Siddhhemchandra Shabdanushasanam Part 01
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Mokshaiklakshi Prakashan
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________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् 219 - उपच्छत् // 33 // __एकोपसर्गस्य च घे / 4 / 2 // 34 // एकोपसर्गस्यानुपसर्गस्य च छदेर्घपरे णौ 'ह्रस्वः' स्यात् / प्रच्छदः, छदः / एकोपसर्गस्य चेति किम् ? समुपच्छादः // 34 // उपान्त्यस्याऽसमानलोपि-शास्वृदितो / 4 / 2 / 35 // समानलोपि-शास्वृदिद्वर्जस्य धातोरुपान्त्यस्य ङपरे णौ ‘ह्रस्वः' स्यात् / अपीपचत्, मा भवान् अटिटत् / असमानलोपि-शास्वृदित इति किम् ? अत्यरराजत्, अशशासत्, मा भवान् ओणिणत् // 35 // भ्राज-भास-भाष-दीप-पीड-जीव-मील-कण-रण-बण-भण-श्रण ढे-हेठ-लुट-लुप-लपां नवा // 4 // 2 // 36 // एषां ऊपरे णावुपान्त्यस्य 'इस्वो वा' स्यात् / अबिभ्रजत्, अबभ्राजत्; अबीभसत्, अबभासत्; अबीभषत्, अबभाषत्; अदीदिपत्, अदिदीपत्; अपीपिडत्, अपिपीडत्; अजीजिंवत्, अजिजीवत्; अमीमिलत्, अमिमीलत्; अचीकणत्, अचकाणत्; अरीरणत्, अरराणत्; अबीबणत्, अबबाणत्; अबीभणत्, अबभाणत्; अशिश्रणत्, अशश्राणत्; अजूहवत्, अजुहावत्; अजीहिठत्, अजिहेठत्; अलूलुटत्, अलुलोटत्; अलूलुपत्, अलुलोपत्; अलीलपत्, अललापत् // 36 // ऋदृवर्णस्य / 4 / 2 // 37 // उपान्त्यस्य ऋवर्णस्य छपरे णौ ‘वा ऋः' स्यात् / अवीवृतत्, अववर्त्तत्; अचीकृतत्, अचिकीर्तत् // 37 // जिघ्रतेरिः / 4 / 2 // 38 // घ्र उपान्त्यस्य उपरे णौ 'इर्वा' स्यात् / अजिघ्रिपत्, अजिघ्रपत् // 38 //
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