Book Title: Siddhhemchandra Shabdanushasanam Part 01
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Mokshaiklakshi Prakashan
View full book text
________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् 217 गाः शादयति // 23 // घटादेईस्वो दीर्घस्तु वा त्रि-णम्परे / 4 / 2 // 24 // 'घटादीनां णौ ह्रस्वः स्यात्, जि-णम्परे तु णौ वा दीर्घः' / घटयति; अघाटि, अघटि; घाटघाटम्, घटंघटम् / व्यथयति; अव्याथि, अव्यथि; व्याव्याथम्, व्यर्थव्यथम् // 24 // कगे-वनू-जनै-जृष्-क्नस्-रञ्जः / 4 / 2 / 25 // 'एषां णौ ह्रस्वः स्यात्, जि-णम्परे तु वा णौ दीर्घः' / कगयति; अकागि, अकगि; कागंकागम्, कगंकगम् / उपवनयति; उपावानि, उपावनि; उपवानमुपवानम्, उपवनमुपवनम् / जनयति; अजानि, अजनि; जानजानम्, जनंजनम् / जरयति; अजारि, अजरि; जारंजारम्, जरंजरम् / क्नसयति; अक्नासि; अक्नसि; क्नासंक्नासम्, क्नसक्नसम् / रजयति; अराजि, अरजि; राजराजम् रजरजम् // 25 // अमोऽकम्यमि-चमः / 4 / 2 / 26 // कम्यमि-चमिवर्जस्याऽमन्तस्य णौ ‘ह्रस्वः स्यात् , जिणम्परे तु णौ वा दीर्घः' / रमयति; अरामि, अरमि; रामरामम्, रमरमम् / अकम्यमिचम इति किम् ? कामयते, अकामि, कामंकामम्; आमयति, आचामयति // 26 // . पर्यपात् स्खदः / 4 / 2 / 27 // आभ्यामेव परस्य स्खदेी ‘ह्रस्वः स्यात्, ञिणम्परे तु वा दीर्घः' / परिस्खदयति; पर्यस्खादि, पर्यस्खदि; परिस्खादंपरिस्खादम्, परिस्खदंपरिस्खदम् / अपस्खदयति; अपास्खादि, अपास्खदि; अपस्खादमपस्खादम्, अपस्खदमपस्खदम् / पर्यपादिति किम् ? प्रस्खादयति // 27 // शमोऽदर्शने / 4 / 2 / 28 // अदर्शनार्थस्य शमी 'हूस्वः स्यात्, त्रिणम्परे तु वा दीर्घः' / शमयति
![](https://s3.us-east-2.wasabisys.com/jainqq-hq/57f60f460c215eface993026c3ee75e50fcab67e94c565ace861513df8919a36.jpg)
Page Navigation
1 ... 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250