Book Title: Shatkhandagama Parishilan
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ शंका-बादरक पाय गुणस्थान के ऊपर भाववेद पाया जाता है इसलिए भाववेद में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव नहीं होता ? समाधान नहीं , क्योंकि यहाँ पर अर्थात् गतिमार्गणा में वेद की प्रधानता नहीं है किन्तु गति प्रधान है और वह पहले नष्ट नहीं होती। शंका यद्यपि मनुष्य गति में चौदह गुणस्थान सम्भव हैं फिर भी उसे वेद विशेषण से युक्त कर देने पर उसमें चौदह गुणस्थान सम्भव नहीं ? -नहीं, क्योंकि विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी उपचार से विशेषणयुक्त संज्ञा को धारण करने वाली मनुष्य गति में चौदह गुणस्थानों का सदभाव होने में विरोध नहीं। शंका-यह बात किस प्रमाण से जानी जाये कि नौवें गुणस्थान तक तीनों वेद होते हैं ? समाधान-असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयमासंयम गुणस्थान तक तिर्यंच तीनों वेद वाले होते हैं और मिथ्यदृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक मनुष्य तीनों वेद से युक्त होते हैं -इस आगम-वचन से यह बात मानी जाती है। इस प्रकार प्रथम खण्ड जीवट्ठाण में गुणस्थान और मार्गणाओं का आश्रय लेक र विस्तार से वर्णन किया गया है। दूसरा खण्ड खुद्दाबन्ध है। इसके ग्यारह अधिकार हैं-(१) स्वामित्व, (२) काल, (३) अन्तर, (४) भंगविचय, (५) द्रव्यप्रमाणानुगम, (६) क्षेत्रानुगम, (७) सार्शानुगम, (८) नानाजीव काल, (६) नानाजीव अन्तर, (१०) भागाभागानुगम और (११) अल्पबहुत्वानुगम । इस खण्ड में इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मबन्ध करने वाले जीव का कर्मबन्ध के भेदों सहित वर्णन किया गया है। तीसरे खण्ड का नाम बन्धस्वामित्व-विचय है। कितनी प्रकृतियों का किस जीव के कहाँ तक बन्ध होता है, किसके नहीं होता है, कितनी प्रकृतियों की किस गुणस्थान में व्युच्छित्ति होती है. स्वोदयबन्ध रूप प्रकृतियाँ कितनी हैं और परोदयबन्ध रूप कितनी हैं इत्यादि कर्मबन्ध सम्बन्धी विषयों का बन्धक जीव की अपेक्षा से इस खण्ड में वर्णन है। ___ चौथे, वेदना खण्ड में कृति और वेदना अनुयोगद्वार हैं । कृति में औदारिक आदि पांच शरीरों की संघातन और परिशातन रूप कृति का तथा भव के प्रथम और अप्रथम समय में स्थित जीवों के कृति, नो-कृति और अवक्तव्य रूप संख्याओं का वर्णन है । वेदना में सोलह अधिकारों द्वारा वेदना का वर्णन है। पांचवें खण्ड का नाम वर्गणा है। इसी खण्ड में बन्धनीय के अन्तर्गत वर्गणाअधिकार के अतिरिक्त स्पर्श, कर्मप्रकृति और बन्धन का पहला भेद बन्ध-~-इन अनुयोगद्वारों का भी अन्तर्भाव कर लिया गया है । इसमें गुणस्थानों का अन्तरकाल कहा गया है। शंका--ओघ से मिथ्यादृष्टि जीवों का अन्तरकाल कितना है ? समाधान-नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक मिथ्यादृष्टि जीव सम्यङ मिथ्यात्व, अविरत-सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम से बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और वहाँ पर सर्वलघु अन्तर्महूर्त काल तक सम्यक्त्व के १२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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