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स्या का टीका एवं हिन्वीविवेचन ]
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नियमतः सत्त्वशुद्धथभावात् , बहूनामपि तत्र म्रियमाणानां रौद्रध्यानादिलिङ्गोपलम्भात् , तत उपदेशेन ज्ञानकल्पने मानाभावात; अन्यथा तदुपदेशस्यान्येनापि संनिहितश्रोत्रेण श्रवणप्रसङ्गाव, तदेकरणोरगदेशे श्रावाचाम् ।
मौर शान मोक्ष का जनक होता है, न कि किसी अन्य कर्म द्वारा । 'मोक्षार्थी धर्म से पाप को नष्ट करता है' अन्य दार्शनिकों के ऐसे कथनों का भी यही आशय है, क्योंकि पाप का नाश, आत्मप्रवेश से निन्ध कमप्रदेश के पृथक्करण से अतिरिक्त नहीं है ।
[ कर्म से तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्षलाभ-उदयनाचार्य ] उदयनमत के अनुयायी विद्वानों का कहना है कि-'कर्म मोक्ष के अनुकूल साधनों का सन्निधान सम्पन्न करता है. अतः वह मोक्षानकल तत्त्वज्ञान का सन्निधान करके ही मोक्ष का जनक हो सकता है, तो इस प्रकार मोक्ष से पूर्व जब तत्त्वज्ञान की उपस्थिति आवश्यक ही है तब उसी को कम का द्वार मानना युक्तिसंगत है।' इस बात के समर्थन में वे अनुमान प्रयोग भी करते हैं जैसे-'तीर्थ विशेष में स्नान प्रावि फर्म तत्वज्ञान द्वारा मोक्ष के जनक रहते हैं, क्योंकि वे मोक्षजनक कर्म है. जो कर्म मोक्षजनक होते हैं वे तत्वज्ञान द्वारा ही मोक्षजनक होते हैं, जैसे यम, नियम प्रभृति यौगिक कर्म।' इस अनुमान में योगत्व उपाधि नहीं हो सकता क्योंकि काशी मरण में तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्षजनकत्वरूप 'साध्य है किन्तु योगस्व नहीं है अत: साध्य का अव्यापक होने से योगत्व साध्यव्यापकत्वे सति साधनाध्यापकत्व' इस उपाधिलक्षण से रहित है । 'काशी-मरण तत्वज्ञान द्वारा मोक्ष का जमक होता है। इस बात को सिद्ध करने के लिये व्याख्याकार ने पराभिमत दो प्रमाणभूत बचत उघृप्त किये हैं, जिनमें एक पुराण का वचन है जिसका अर्थ यह है कि-'काशी में मृत्यु के समय भव भय से पीड़ित प्राणी को भगवान् शंकर तारक मोक्षजनक तत्त्वज्ञान का उपदेश प्रदान करते हैं।' दूसरा वचन श्रुति वचन है, जो काशी-मरण के प्रसङ्ग में आया है। अत: उसका भी प्रसङ्ग-सङ्गत अर्थ यही है कि-'भगवान् रुद्र काशी में मरणासन्न मनुष्य को तारक तत्त्वज्ञान का उपदेश करते हैं।'
इस सन्दर्भ में यह शङ्का उचित नहीं हो सकती कि-'स्तान आदि कर्मों से तत्त्वज्ञान का जन्म न होने से तत्वज्ञान उन कर्मों का द्वार नहीं हो सकता-क्योंकि स्नान आदि कर्म अन्तःकरण को शुद्धि द्वारा तत्त्वज्ञान के जनक होते हैं। यह भी शङ्का उचित नहीं हो सकती कि-'मोक्षजनक कर्मत्व मोक्ष के साक्षात् जनक कर्म में तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्षजनकात्य का व्यभिचारी है, अत: उस हेतु से स्नान आदि कर्मों में तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्षजनकरव को सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा कोई कर्म है ही नहीं जो मोक्ष का साक्षाद जनक हो।
उवयनमतानुयायियों का यह भी कहना है कि-'तत्त्वज्ञान और कर्म में मोक्षजनकताका प्रतिपादन करने वाली जो कोई श्रति प्राप्य है, वह उन दोनों में मोक्ष की कारणता का हो प्रतिपादन करती है, न कि उनके तुल्यकक्ष समुच्चय का भी प्रतिपावन करती है, प्रतः कोई प्रमाण न होने से भी मान-कर्म समुच्चय को मोक्ष का कारण नहीं माना जा सकता।'
[उदयनाचार्य मत की समीक्षा ] च्यात्याकार कहते हैं कि उक्त मत को व्यक्त करने वाले उदयनानुयायी मी भ्रान्त हैं, क्योंकि